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________________ कर्मसिद्धान्त १७५ इस विषयको स्पष्ट करनेवाली प्रबोचपूर्ण कथा पट्लाभत टीकाम अतसागर सरिने इस भांति बताई है कि-एक शिवभूति नामक परम विरागी अल्पज्ञानी सत्पुरुषने गुरुदेवके समीप महाव्रतको दीक्षा ली। उन्हें शरीर और आत्मामें भिन्नताका अनुभव तो होता था, किन्तु इस विषयको सुदृढ़ करने के लिये गुरुले सिखाया--"तुषात् भाषो भिन्न इति पषा तथा शरीरात् आरमा मिन्न इति।" एक समय शिवभूति इन शब्दोंको भूल गये । अर्थ जानते हुए भी शब्द नहीं जानते थे। एक समय उन्होंने एक स्त्रीको दाल बनाने के लिये पानीमें उड़दोंको डाल छिलकोंको पृथक् करते हुए देख पूछा-"कि कुवषे भवति इति ?-तुम यह क्या कर रही हो ? सा प्राह-'तुषमावान् भिन्नान् करोमि'-'मैं दाल और छिलकोंको पृथक करतो हूँ । इतना सुनते ही शिवभूतिने कहा-'मया प्राप्तम्' मुझे तो मिल गया। इसके अनन्तर एक चित्त हो ध्यान मग्न हो गये और 'अन्समुहूर्तन कवलनान प्राप्य मोक्षं गतः' अन्तर्मुहर्त में केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो गए ।' स्वामी समतिम समय युसर मारामको राष्ट्र करते हुए लिखते है-यदि अज्ञानसे नियमतः बन्ध माना जाए, तो ज्ञेय अनन्त होनेसे कोई भी केवली नहीं होगा। कदाचित् अल्प-ज्ञानसे मोक्ष मान भी लें तो बहुत अशानसे बन्ध हुए बिना न रहेगा ।" ऐसी स्थितिम समन्वयकारी मार्ग प्रदर्शित करते हुए आचार्यश्री लिखते है--मोहयुक्त अज्ञानसे बन्ध होता है, मोहरहित अज्ञान बन्धका कारण नहीं है। मोहरहित अल्पज्ञानसे मुक्ति प्राप्त होती है और मोहयुक्त ज्ञानसे मुक्ति नहीं मिलती। इस विवेचनसे कोई यह मिथ्या अर्थ न निकाले वि जैन-शासनम उच्च-ज्ञानको अनावश्यक एवं अग्राह्य बताया है । महान शास्त्रोंके परिशीलनसे राग, द्वेष आदि विकार मन्द होते हैं, मनोवृत्सि स्फोत हो जीवन-ज्योतिको विशेष निर्मल बनाती है। स्वामी समन्तभद्रने उच्च मान सम्बन्धी एकान्त दृष्टिको दुर्बलताको स्पष्ट किया है, अन्यथा अभीषणशानोपयोग नामकी भावना द्वारा तीर्थकर प्रकृतिक बन्धका जिनागम में वर्णन न किया जाता । बन्धतत्त्वके स्वरूपको हृदयंगम करनेके लिये यह जानना आवश्यक है कि मनोवत्तिके अधीन बन्ध, अबन्धकी व्यवस्था १. षट्प्राभूत टीका १० २०११ २. "अज्ञानाञ्चेद् वो बन्धो यानन्त्यान्न केवली । ज्ञानस्तोकाद्विमोक्षश्चेदज्ञानाद् बहुतोऽन्यथा ॥" -आप्तमीमांसा ९६ । ३. "अज्ञानान्मोहिनो बन्धो न ज्ञानाद् वोतमोहतः । ज्ञानस्तोकाच्च मोक्षः स्यादमोहान्मोहिनोऽन्यथा ॥९॥"
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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