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________________ संयम बिन घडिय म इकक जाह ७१ कोई-कोई व्यक्ति, यह सोच सकते हैं कि जीवन एक संग्राम और रांघर्षकी स्थिति में है, उसमें न्याय-अन्यायकी मीमांसा करनवान्देकी मुम्बपूर्ण स्थिति नहीं हो सकती । इसलिए जैसे भी नन स्वार्थ-साधनाक कार्य में आगे बढ़ना चाहिए । यह मार्ग मुमुक्षुके लिए आदर्श नहीं है। वह अपने व्यवहार और भाचारके वारा इस प्रकार के जगतका निमांग करना चाहता है, जहाँ ईा. दुप, मोह, पंभ आदि दुष्ट प्रवृत्तियोंका प्रमार न हो । राब प्रेम और यान्तिके माध जीवनज्योतिको विकसित करते हुए निर्वाणको माधनामे उद्यत रहे. वह जगकी हार्दिक कामना रहती है। जनन्य स्वार्थापर विजय पाये बिना जुन्नतिकी कल्पना एक स्वप्नमान है । जघन्य स्वार्थ और वासनापर अबतक विजर नहीं की जाती, तबतक आत्मा यथार्य सन्नतिक पधपर नहीं पहुंचता । विश्वकवि रबीन्द्र बाबूके ये उद्गार महत्त्वपूर्ण है, "वासनाको छोटा करना ही आत्मा का बड़ा करना है।" भोग प्रधान पश्चिमको लक्ष्य बनाने हुए वे कहती हैं, "यूरोप मरने को भी राजो है, किन्तु बासनाको छोटा करना नहीं चाहता। हम भी मरनको राजी हैं, किन्तु आत्माको उसकी परमगति-परम सपसिसे वंचित करके छोटा बनाना नहीं चाहते'' साधनाके पथमें मनुष्यको तो बात ही क्या, होनहार उज्ज्वल भविष्यवाले पशुओं तकनं असाधारण आत्म-विकास और संयमका परिचय दिया है। भगवान महावीरके पूर्व भवोंपर वृष्टिपात करनेमें विदित होता है, कि एक बार के भयंकर सिंहको पर्याय में थे और एक मृगको मारकर भक्षण करने में तत्पर ही पे, कि अमितीति और अमितप्रभ नामक दो अहिंसा महासात्रयः मुनीन्द्रोंके आत्मतेज तथा ओजपूर्ण वाणोन उम निदवी स्वाभाविक क्रूरताको घोकर उसे प्रेम और काणाको प्रतिकृति बना दिया। महाकवि असगके शब्दों में ऋषिवर श्री अमितकीसिने उस मगेन्द्र को शिक्षा दी थी कि "स्व रा दशान् अवगम्य मर्दसत्त्वान्'-अपने सदृश सम्पूर्ण प्राणियोंको जानते हुए 'प्रगमरतो भव सर्वथा मृगेन्द्र'-हे मृगेन्द्र ! तू कूरताका परित्याग कर और प्रशाम्त एन । अपने शरीरको ममता दूर कर अपने अन्तःकरणको दया कर 'त्यज वापि परां ममत्वबुद्धि । कुरु करणाईमनारतं स्वचित्तम् ।' उन्होंने यह भी समाया, यदि तूने संयमारूपी पर्वतपर रहकर परिशुद्ध दृष्टिरूपी गुहाम निवास किया तथा प्रशान्त परिणति रूप अपने नखोंसे कषायरूपी हाथियोंका संहार किया, तो तू पथार्म में भव्यसिंह इस पदको प्राप्त करेगा।'-- यदि निवससि संयमोन्नताद्री प्रविमलदृष्टि गुहोदरे परिघ्नन् उपशमनखरैः कपायनागांस्त्वमसि तदा खलु सिंह ! भव्यसिंहः [महावीरचरित्र-११ सर्ग, ३८] १. 'स्वदेश' से।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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