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________________ १४६ जैन शासन क्षणिक रूप एकान्त पक्षमें प्रत्यभिज्ञान, स्मृति, इच्छा आदिका अभाव होगा ? जिस प्रकार किसी दूसरेके अनुभव में आई हुई वस्तुका हमें स्मरण नहीं होता, उसी प्रकार किसी भी व्यक्तिको स्मरण नहीं होगा, क्योंकि अनुभव करनेवाला जीव नष्ट हो गया मोर पर बजेगा की सन या प्रत्यभिज्ञान अादिके अभाव होने के कारण कार्यका आरम्भ नहीं होगा, इसलिए पाप-पुण्य लक्षण स्वरूप फल भी नहीं होगा। इसके अभावम न बन्ध होगा न मोक्ष। क्षणिक पक्ष कारणसे कार्यको उत्पत्तिके विषयमें भी अव्यवस्था होगी। बौद्धदर्शनको मान्यताके अनुसार कारण सर्वथा नष्ट हो जायगा और कार्य बिल्कुल नवीन होगा । इसलिए उपादान नियमकी व्यवस्था नहीं होगी । सूतके बिना भी मतो नस्त्रको उत्पत्ति होगी । सूतरूपी उपादान कारणका कार्यरूप वस्त्र परिणमन बौद्ध स्वीकार नहीं करता । असत् कार्यवाद स्वीकार करनेपर आकाशपुष्पकी तरह पदार्थकी उत्पत्ति नहीं होगी। ऐसो स्थितिमें उपादान नियमके मभाव होनपर कार्यको उत्पस्सिमें कैसे सन्तोष होगा? असतरूप कार्यको उत्पत्ति माननेपर तन्तुओंसे वस्त्र उत्पन्न होता है और लकड़ोसे नहीं होता, यह नियम नहीं पाया जायगा। युक्त्यनुशासनमें स्वामी समन्तभद्र ने कहा है-एकान्त रूपसे क्षणिकतत्त्व माननेपर पुत्रकी उत्पत्ति क्षणमें माताका स्वयं नाश हो जायगा, दुसरे क्षणमें पुषका प्रलय होनेसे अपुत्रको उत्पत्ति होगी। लोक-व्यवहारसे दूरतर माताके विनाशके लिए प्रवृत्ति करनेवाला मातृधाती नहीं कहलाएगा। कुलीन महिलाका कोई पति नहीं कहलाएगा, कारण जिसके साथ विवाहसंस्कार होगा उस पतिका विनाश होने से नवीनकी उत्पत्ति होगी । जिस स्त्रीके साथ विवाह हुआ दूसरे क्षण उसका भी विनाश होनेसे अन्यको उत्पत्ति होगी। इस प्रकार परस्त्री-सेवनका उस व्यक्तिको प्रसंग आएगा। इसी नियमके अनुसार स्व-स्त्रो भी नहीं होगी। घनो पुरुष किसी व्यक्तिको ऋणमें धन देते हुए भी उस सम्पत्तिको बौद्धतत्त्वज्ञान के अनुसार नहीं पा सकेगा, क्योंकि ऋण देनेके दूसरे ही क्षण साहूकारका नाश हभा, लिखित साक्षी आदि भी नहीं रही और न उधार लेनेवाला बषा । शास्वाम्पास भी विफल हो जाएगा, कारण स्मृतिका सद्भाव क्षणिक तत्त्वज्ञानमें नहीं रहेगा, आदि दोष क्षणिकैकान्तकी स्थिति संकटपूर्ण बनाते हैं। १, 'यद्य सत्सर्वथा कार्य तन्मा जनि खपुष्यवत् ।। मोपादाननियामो भून्माप्रश्वासः कार्यजन्मनि ।। ४२ ॥" -माप्तमीमांसा २. "प्रतिक्षणं भंगिषु तथक्त्वान्न मातृघाती स्वपतिः स्वजाया। दत्तग्रहो नापिंगतस्मृतिन न क्त्वार्थसत्यं न कुलं न जातिः ॥ १६ ॥" -युक्त्यनुशासन पृ० ४२ ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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