SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७ परमात्मा और सर्वज्ञता इसका मूल आधार इतर विज्ञानोके समान प्रकृतिको एकविधता ( - Uniformity of Nature) है। प्रकृति अविनाशी है क्योंकि पदार्थोके गुण-धर्म नहीं बदलतं, वे सदा से हो रहते है 1 यह प्रकृतिका नियम है कि एकजातीय पदार्थों में सर्व-अनुगत-समान धर्म पाया जाता है। जैसे सोना मदा 'सोना' रूप ही में पाया जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि मोना एक एकता सोने के नारे एक के समान सदा होगा। शुद्ध पदार्थ में भिन्नता नहीं पायी जाती । सर पदाओंमें यही नियन है । आत्मा भी एक दृष्य है, अतएव वह इस नियमके वाहर नहीं है । इस कारण ज्ञानात्मक आत्म-द्रव्य के गुण प्रत्येक अवस्थामें समान है 1 इससे शानशक्तिकी अपेक्षा सब आरमाएँ समान हैं । इसका यह तात्पर्य हया कि प्रत्येक आत्मामें इस प्रकारकी शक्ति है कि सम्पूर्ण ज्ञानको अभिव्यक्त करे। आत्मा सर्व जगत् और सर्वकालके पदार्थों को तथा उनकी अवस्थाओं को जान सकता है, जो विषय कोई एक आत्मा जानता है, अतीतमें जिसे जाना था, अश्वा भविष्य में जिसे जानेगा, उमे दूसग आत्मा भी जान सकता है। भूतकाल में किसी एक्ने जितना ज्ञान प्राप्त किया होगा उसे कोई भी आज विद्यमान प्राणी जान सकता है । इसी प्रकार वर्तमान में किमीके द्वारा माना गया पुर्णज्ञान तथा भविष्य में किसी प्राणो के द्वारा ज्ञानकी विस्य-भूत बनायी जाने वाली वस्तुको हम में से कोई भी जान सकता है। इस प्रकार कालत्रयसम्झम्धी जान सब आत्माओं में सम्भय हो सकता है। क्या आकाश हमारे ज्ञानको मर्यादित कर सकता है ? संक्षेपमें कहना होगा कि सर्वज्ञ बननेकी ममता सब आस्माओंमें है-वर्तमान कालमें अनेक पदार्थ अज्ञात रहते है पर इसका अर्थ यह नहीं है कि वे सदा अज्ञात ही रहेंगे 1 यह निर्विवाद है कि जो पदार्थ सत्यान्वेषी समर्थ हृदयों में प्रतिभासित नहीं होते हैं, उनका मस्तित्व कभी भी सिर नहीं किया जाता और इसीलिए उनका अभाव हो जायगा ।" उपयुक्त अवतरणसे आरमाकी सकल पदार्थोको साक्षात् ग्रहण करने की शति स्पष्ट होती है । त्रिकालवी अनन्त पदार्पोको क्रम-क्रम से जानना असंभव है, अतः सर्वज्ञताके तत्वको स्वीकार करनेपर युगपत् ही सर्व पदार्थोफा ग्रहण स्वीकार करना होगा। मर्यादापूर्ण क्रमवी अल्पज भी विशेष आत्मशक्ति के बल पर स्व० राजपाव भाई के समान शतावधानी एक साथ मौ बातोंको अवधारण करनेकी जन्म क्षमता दिखाता है, तब सम्पूर्ण मोहनीय तया ज्ञानावरणादि विकारों के पूर्णतया क्षय होने से यदि आत्म-माक्ति पूर्ण विकसित हो एक क्षणमें कालिक समस्त पदार्थको जान लें तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। हाँ, आत्मशक्ति और उसके वैभव को भूलकर मोह-पिशाचसे परतन्त्र किये गये प्राणियों की दुर्बलताकी छाप (छाया) समर्थ आत्माओंपर लगाना यथार्थमें पापचर्यकारी है। मौनिकताके
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy