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________________ जेनशासन युद्ध में जीता था। वीरशिरोमणि जिनभक्त सोलंकी राज्यके मंत्री आभने यवनोंको पराजित कर अपने राज्यको निरापद किया था । हिमय और कनिंगहमने जिस मोर सुहृलदेवको जैन माना है, उमने बहराइच में मुस्लिम सैन्यको पराजित किया था। उस समय यवन पक्षने बड़ी विचित्र चाल खेली थी । अपन समक्ष गोपंक्ति इकट्ठी कर दी थी। इसमें गोभक्त हिंदूसंन्य और शासक कि-काव्यविमूढ़ हो स्तब्ध हो गए थे और मोचते थे---यदि हमन शत्रपर शस्त्र प्रहार किया तो गोबधका महान् पाप हमारे सिरपर सवार हो हमें नरक पहुँचाये बिना न रहेगा। ऐसे कठिन अवसरपर वीर सुहल देवने जनधर्मको शिक्षाका स्मरण करते हुए आक्रमणकारी तथा अत्याचारी यवन सैन्यपर वायवर्षा की और अंत में जपश्री प्राप्त की। इससे यह बात प्रमाणित होती है कि भारतीय इतिहासकी दृष्टि में जैनशासकों तथा नरेशोंका पराक्रमके क्षेत्र में असाधारण स्थान रहा है। यदि भारतवर्षके विशुद्ध इतिहासकी, वैज्ञानिक प्रकाशमें सामग्री प्राप्त की जाय और उपलब्ध सामग्रीपर पुनः सूक्ष्म चितना की जाय तो जनशासनके साराधकोंके पराक्रम, लोकसेवा आदि अनेक महत्त्वपूर्ण बातोंका ज्ञान होगा। विशुद्ध इतिहास, जो सांप्रदायिकता और संकीर्णताके पंको अलिप्स हो यह प्रमाणित करेगा कि कमसे कम समस्त भारतवर्ष में भगवान महावीरके पवित्र अनुशासनका पालन करनेवाले जैनियों द्वारा भारतवर्षकी अभिवृद्धिमें अवर्णनीय लाभ पहुंचा है। आज कहीं भी जैनधर्म के शासक नरेश नहीं दिखाई देते । इसका कारण एक यह भी रहा है कि देशमें जब भी मातभूमिकी स्वतंत्रता और गोरक्षाका अवसर आया है तब प्रायः जैनियों ने स्वाधीनताके सच्चे पक्षका समर्थन किया और उसके लिए अपने सर्वस्व तथा जीवननिधिको तनिक भी परवाह न को। जब सन् १९३५ में हम दक्षिण फर्नाटक पहुंधे थे, तब हमें मूडबिद्री (मंगलोर) में पुरातन जनराजवंशके टिमटिमाते हुए छोटेसे दीपकके समान श्रीयुप्त धर्मसाम्राज्यपाले यह समझनेका अवसर मिला, कि किस प्रकार उन लोगोंकी राज्यशक्ति क्षीण और नष्ट हुई। उन्होंने बताया कि जब हैदरअली, दीपू सुलतान आदिका अंग्रेजोसे यश पाल रहा था, उस समय हमारे पूर्वजोंने अंग्रेजोंका साथ नहीं दिया था और कूटनीतिके प्रसादले जब जयमाला अंग्रेजोंके गलेमें पड़ी तब हम लोगोंको अपने राज्यसे हाथ धोना पड़ा । इस प्रकाशमें यह बात दिखाई पड़ती है कि किस प्रकार जैन नरेशोंको अपना अस्तित्व तक होना पड़ा । स्वायियोंकी निगाहमें जहां वे असफल माने जामगे, बल्ला स्वाधीनताके पुजारियों के लिये के लोग सुरत्वसम्पन्न दिखाई पड़ेंगे।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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