SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रबुद्ध माघक भी कभी बंध होता है, कभी नहीं भी। किन्तु यह तो निश्चित है कि उपाधियोंवस्त्रादिपरिग्रहसे नियमसे बंध होता है। इसलिए श्रमणको सब परिग्रह छोड़ना चाहिए । त्याग निरपेक्ष नहीं होता, वस्त्रादि परिग्रह छोड़े बिना भिक्षुके चित निर्मलता नहीं होती । अ-विशुद्धचित्तके होनेपर कैसे कर्मक्षय होगा ? अतः परिग्रहके होने पर ममत्व आरम्भ अथवा असंयम क्यों नहीं होंगे ? तत्र परद्रव्यमें क्त हुआ साधु किस प्रकार आत्म-साधना कर सकेगा ? ७९ जैन गुरुओं की दिगम्बरय सम्बन्धी मान्यताको वास्तविक रूपसे न समझने के कारण कोई यह समझते है कि दिगम्बर धर्मानुयायी गृहस्थों को भी कम-से-कम आहार लेते समय दिगम्बर रहना चाहिए। इसके विपरीत जो मदा सबस्त्र रहें उन्हें स्वेताम्बर कहते हैं । इन्साइक्लोपीडिया जिल्द १५, १४ वें संस्करणके पू २८ में पूर्वोक्त भ्रम इन शब्दोंमें व्यक्त किया गया है — "The Jains themseIves have abandoned the practien; the Digambaras being sky-clad at meal time only and the Swetambaras being always completely clothed." तात्विक बात तो यह है कि दिगम्बर साधु और दिगम्बर मूर्तिको पूजने के कारण गृहस्थ दिगम्बर जैन कहे जाते हैं । सम्पूर्ण अहिता के बार जिनेन्द्रियमुनिके सिवाय गृहस्थ मुनिमुद्रा धारण नहीं करता । गृहस्थ के वस्त्र पहनने की तो बात ही क्या वह नीतिमतापूर्वक बड़े-बड़े साम्राज्य तकका संरक्षण करता है । अंग्रेजी भाषाका महाकवि शेक्सपियर अपने हेमलेट नाटक में लिखा है"Give me the stan, that is not passion's slave. " मुझे ऐसा मनुष्य बताओ जो वामनाओंका दास न हो। यदि दिगम्बर जैन मुनिका साक्षात् दर्शन अथवा परिचय महाकविको प्राप्त हुआ होता, तो उसकी यह जिज्ञामान्त हुए बिना न रहती | दिगम्बर मुनिका जीवन व्यतीत करनेके लिए महान् आत्मबल चाहिए । मानसिक कमजोरी या प्रमाद क्षणभर में इस जीवको पतित कर सकते हैं । उज्ज्वल भावनाओं और विषय विरक्तिको प्रेरणासे महान् पुण्योदय होनेपर किसी विरले माईके लालके मन में बालक निर्विकार दिगम्बर मुद्रा धारण करने की लालसा जाग्रत होती है। आचार्य गुणभद्र लौकिक वैभव, प्रतिष्ठा, साम्राज्य-लाभ कि तम्हि णत्थि मुडा बारम्भो या असंजमो तस्स । तथ परधध्वम्मि रो कषमप्पाणं साधयदि " 1. Act Ji Se II. ( अध्याय ३।१९ २० २१ )
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy