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________________ आत्मजागृतिके साधन-तीर्थस्थल १८३ देव, आपके विवाह महोत्सवमें वासुदेवको आजारों लोगोंके सल्का निमित्त ये यहाँ रखे गये हैं।" इस प्रकृतिको पुस्तक नमिनाथ के अन्तःकरणमें कमणाके सूर्यको उचित कर दिया। वे सोचने लगे, व देनार निदो प्राणी घारा चरते हैं और वनमें रहते हैं, इतनेपर भी अपन भोगनिमित्त लोग इन्ह इस प्रकार कष्ट देते हैं। अहो ! तीन मिथ्यात्वके वशीभुत हो मूर्ख जन निष्ठुर बन स्या नहीं करते। इसके साथ नेमिनाथ प्रभुने इस प्रकरणमे कृष्णकी गुप्त वृत्ति भी जान ली। संसार उन्हें क्षणभङ्गर और स्वार्थपूर्ण दीखने लगा। उन्होंने सोचा, अब तो राजीमती राजकन्याके माथ विवाह न कर मुक्तिश्रीका वरण करूंगा। शुष्क निर्दयतामे अन्तःकरणमें करुणाको घारा प्रवाहित करनके लिए सब वैभवका परित्याग कर उन्होंने ऊर्जयन्त गिरिपर दीक्षा ली और तपस्वियोंके शिरोमणि बने । उधर राजपली बननेवाली शीलवती देवी राजोमतीने भी जोवननाथ नेमिनायका पदानुसरण कर वापतोकीक्षा ली और साम्यो-जगत में श्रेष्ठपदको प्राप्त किया । इन पुण्य विभूतियोंन गिरिनार पर्वतको अपने त्याग और तपश्चर्या द्वारा पवित्र स्थान बना दिया । इतिहासको भाषामें गिरनार पर्वत जैन संस्कृति समाराधकोंका महान् स्थल आजस लगभग दो हजार वर्ष पूर्व तक भी रहा आया है। क्योंकि गिरनार पत्तनको चन्द्रगुफा में विद्यमान आचार्य धरसेनने प्रवचन वात्सल्य कारण भूतबलि और पुष्पदन्तको कर्मशास्त्रका अम्याम कराया था, जिस अबधारण कर उक्त मुनि-युगलने अत्यन्त पूज्य षट्खण्डागम शास्त्रकी रचना की । गिरिनार पर्वतके साथ नेमिनाथ भगवान्को परमकामणिक दृत्ति और त्यागका संस्मरण आये बिना नहीं रहता । गौतमबुद्धके हृदयमें करुणाका रस मूक पशुओंको देखकर नहीं उत्पन्न हुआ था कि जिसकी प्रेरणासे उन्होंने बुद्धत्वके लिए प्रयत्न प्रारम्भ किया । दौन प्राणियोंके व्यथित जीवनके प्रति सच्ची सहानुभूति दिखानेवाले रागके मु-मधुर चौराहेसे मुख मोड़ विरागताके शैलशिखरपर बढ़नेवाले भगवान् नेमिनाथ और उनकी सह-धर्मिणी बनने वाली सती राजीमतीजैसा आदर्श संसार में कहाँ मिलेगा? ऐसे आदर्शोका मौन भाषामें मधुर स्मरण करानेवाला यह कर्जयन्त गिरि क्यों न वन्दनीय होगा? इस गिरिराजस पुनीत सौराष्ट्र देश भी भक्त' चन्दावन कविके द्वारा इन शब्दोंमें वंदनीय कहा गया है-- "शोभत गढ़ गिरनार नेमिस्वामी निरवान थल ।। दो हानि सिरधार, वन्दों सोरठ देस मैं ।।"-छन्दशतक, ६८ ! भगवान् महावीरके जीवनका इतिहास और उनके त्यागकी अमर कहानी बिहार प्रान्तके पावापुर ग्राममें विश्वमान सरोवरस्थ पवल जिनमन्दिरमें मिलती १. घटसण्ठागम भाग १, पृ० ६७, ७० ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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