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________________ पुण्यानुबन्धो वाल्मय २८९ दार्शनिकता, ताकिकता और कवित्वका मनोहर सम्मिश्रण बड़े पुण्यसे प्राप्त होता है। आचार्य सामने जीवन भर तक की अभ्यास किया और पश्चात् यशस्तिलकचम्पू-जैसी श्रेष्ठ रचना प्रारम्भ की, तब यह शंका हुई कि भला शुष्क तार्किक क्या काव्य बनाएगा ? इसके समाधानमें सोमवेव सूरि लिखत है "आजन्म-समभ्यस्तात, शुष्कात्तत्तिणादिव ममास्याः । मतिसूरभेरभवदिदं सूक्तिपयः सुकृतिनां पुण्यः ।।" -यश ति० १.१७ । मैंने जीवनभर अपनी बुद्धिरूपी कामधेनुको शुष्क तर्फरूप तृण खिलाया है । सत्पुरुषोंके पुष्यसे उससे यह सूक्तिरूप दुग्धको उदभूति हुई है। इस बुद्धिरूप कामधेनुने यशस्तिलकचम्पू नामक विश्ववन्दनीय अनुपम रचना सोमदेव जैसे ताकिकसे प्राप्त करा दी। साकिक प्राचन्द्रको कल्पनामें भी जीवन है। दुष्टोंके उपप्रवसे सस्पुरुषोंको कृतिपर सदा पानी फिर जाया करता है। अतः कहीं सज्जन लोग अपने पुण्यकार्यसे विरत न हो जावें इससे प्रभाचाच प्रेरणा करते हुए कहते हैं-'मानवान् पुरुष दुर्जनोंके घिरायके कारण उद्विग्न होकर अपने मारपकार्यको नहीं छोड़ देते हैं, किन्तु ये उस दुर्जनसे स्पर्धा करते हैं। ईद्र सदा कमलके विकासको दूर कर उसे मुकुलित किया करता है, किन्तु इसका सूर्यपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह पुनः पुनः प्रतिदिन पम-विकासनकार्यको किया करता है।' कितमी सुम्बर स्लीसे सत्पुरुषोंको साहस प्रदान करते हुए सन्मार्ग में लगे रहने की प्रेरणा को है"त्यजति न विदधानः कार्यमुद्विज्य धीमान् खलजनपरिवृत्तः स्पर्धते किन्तु सेन । किमु न वितनुतेऽकः पद्मबोधं प्रबुद्धः सदपहृतिविधायी शीतरश्मियंदोह ।।''--प्रमेयक० १० २। सुभाषित एवं उज्ज्वल शिक्षाओंकी दिशामें जैनवाङ्मयसे भी बहुमूल्य सामग्री प्राप्त होती है। सामणि काय अन्यमें प्रत्येक पद्य सुन्दर सूक्तिसे भलंकृत है । ग्रन्थकारकी कुछ शिक्षाएं बहुत उपयोगी हैं । वे कहते हैं "विपदस्तु प्रतीकारो निर्भयत्वं न शोकित्ता ।" ३, १७ ॥ विपत्तिको दूर करनेका उपाय निकिता है। शोक करना नहीं । कोई-कोई म्यक्ति वस्तुच्वंसकर्ताकी शक्ति और बुद्धिको प्रशंसा करते हैं, और निर्माताको अल्पधेय प्रदान करते हैं, उनके भ्रमका निवारण करते हुए कवि कहते हैं
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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