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________________ हिसाके यालोको और अपने आश्रितोंके संरक्षपामें चुप होकर बैठ जाए तो न्यायोधित अधिकारोंकी दुर्दशा होगी। जान-माल, मातृ जातिका सन्मान आदि सभी संकटपूर्ण हो जाएंगें | इस प्रकार अन्तमें महान् धर्मका ध्वंस होगा । इसलिए साधन सम्पन्न समर्थ शासक अस्त्र-शास्त्रो गुगन्जित रहता है, अन्यायके प्रतीकारार्थ शान्ति और प्रेमपूर्ण व्यवहार के उपाय समाप्त होनेपर वह भीषण दण्ड प्रहार करनेसे विमुख नहीं होता। इस प्रसंगमें अमेरिकाके भाग्य-विधाता अग्राहमलिंकनके ये शब्द विशेष उद्बो. धक है, "मुझे युद्धसे घृणा है और मैं उससे बचना चाहता हूँ। मेरी घणा अनुचित महत्त्वाकांक्षाके लिए होनेवाले युद्ध तक ही सीमित है । न्याय रक्षार्थ युद्धका आह्वान दौरताका परिचायक है। अमेरिकात्री अखण्डताके रक्षार्थ लड़ा जानेवाला युद्ध न्यायपर अधिष्ठित है, अतः मुझे उससे दुःख नहीं है।' यह सोचना कि बिना सेना अस्त्र-शस्त्रादिके अहिंसात्मक पद्धतिसे राष्ट्रोंका संरक्षण और दुष्टोंका उन्मूलन हो जाएगा, असम्यक् है ! भावनाके आयेशमें ऐसे स्वप्न-साम्राग्य तुल्य देशको मधुर कल्पना की जा सकती है, जिसमें फौज-पुलिस आदि दण्डके मंग-प्रत्यंगोंका तनिक भी साद नहीं हो । अहिमा विद्याके पारदी जैन-तीर्थरों और अन्य सत्पुरुषोंने मानव प्रकृतिको दुघलताओंको लक्ष्य में रखते हुए दण्ड नोलिको भी आवश्यक बताया है । सागारधर्मामृतमें दिया गया यह पच जैन इष्टिको स्पष्ट शब्दों में प्रफर करता है ___ "दण्डो हि केवलो लोकमिम चामे च रक्षति। राज्ञा शत्री च पुन च यथा दोषं समं धुतः ।।" ४, ५ । राजाके द्वारा शत्रु एवं पुत्र दोषानुसार पक्षपातके बिना समान रूपसे दिया गया दण्ड इस लोक तथा परलोककी रक्षा करता है ।। इसमें सन्देह नहीं है कि कर्मभूमिके अवतरणके पूर्व लोग मन्दकापायी एवं पवित्र मनोवृत्ति वाले थे इसलिए शिष्टसंरक्षण तथा घुष्ट-दमन निमित्त दण्डप्रयोग नहीं होता था; किन्तु उस सुवर्ण युग अवसानके अनन्तर दूषित अन्तःकरणवाले व्यक्तियोंकी वृद्धि होने लगी, यतः सार्वजनिक कल्याणार्थ दाह-प्रहार आवश्यक अंग बन गया; कारण दण्ड-प्राप्तिके भयसे लोग कुमार्ग में स्वयं नहीं जातें । इसी कल्याम भावको दृष्टिमें रख भगवान् वृषभनाथ तीर्थ र सदृश अहिंसक संस्कृतिके भाग्य-विधाता महापुरुषने दण्ई धारण करनेवाले नरेशों की सराहना की, कारण इसके आधीन जगत्के योग कोर क्षेमकी व्यवस्था बनती है। महापुराणकार आचार्य जिनसेमने कहा है१. 'युगधारा' मासिक, मार्च, ४८, पृ० ५२६ ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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