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________________ जनशासन समक्ष रखा; जिस शिक्षणके द्वारा अगणित आत्माओंने कर्म-शत्रुओंका संहारकर परम निर्वाण रूप स्वाधीनता प्राप्त की, उस धर्मके शिक्षणमें व्यक्तिगत व राष्ट्रके पतनका अन्वेषण मृगका परीचिकामे पानी देखने जैसा है । जैन शासकमा आदर्श भगवान् शांतिनाथ सदृश चक्रवर्ती तीर्थकरका चरित्र रहता है, जिन्होंने साम्राज्यकी अवस्था में नरेंद्रचक्र पर विजय प्राप्त की थी और अन्तम भोगोंको क्षणिक और निस्सार समम मोह-शत्रुके नानिमित्त अतःबाह्य दिगम्ब रत्वको अपनाकर कर्मसमूहको नष्ट किया । वास्तव में विकास और प्रकाशका मार्ग बौरता है। इस वौ रतामे दोनोंका संहार नहीं होला । यह वीरता अन्याय और अत्याचारको पनपने नहीं देती। जैनधर्म प्रत्येक प्राणीको महावीर बननेका उपदेश देता है और कहता है'बिना महावीर देने तुम्हें सच्चा कल्याण नहीं मिल सकता, महाबीरकी दृत्ति पर ही व्यक्ति अथवा समष्टिका अभ्युदय और अभ्युत्थान निर्भर है। कहते हैं, एक प्रतापी राजा अपने विजयोल्लासमें मस्त हो, सोचता था, कि इस जगत्में ऐसा कोई व्यक्ति नही बचा, तो मेरे समक्ष अपने पराक्रमका प्रदर्शन कर सके, उसी समय छोटेसे निमित्त से उसे क्रोध आ गरा, नेत्र रक्तवणं हो गए । कुछ कालके उपरान्त अन्तःकरणमे शान्तिका शासन स्थापित होने पर विवेक ज्योति जागी, तब जप यह भान हुआ, कि मेरी महान् विजयकी कल्पना तत्वहीन है; मैंने अपने अन्तःकरण में विद्यमान प्रच्छन्न शत्रु क्रोधादिका तो नाश ही नहीं किया । तब वह लज्जित हुआ | आचार्य बायोमसिंह लिखते है, जब गोषरकुमार काष्ठांगारके अत्याचारकी कथा सुनते ही अत्यन्त क्रुद्ध हो गया था, तब मार्यनंबो गुरुने यही तत्त्व समझाया था, वत्स, सच्चे शष पर यदि तुम्हें रोष है, तो इस क्रोध पर क्यों नहीं बुद्ध होते, कारण इसने तुम्हारे निर्वाण-साम्राज्य तकको छीन लिया है। जी बंधरकुमारने अपने पराक्रम, पुरुषार्थ एवं पुण्य के प्रभाव से अपने राज्यको पुनः प्राप्त तो कर लिया, किन्तु आस्म-साम्राज्यको प्राप्त करने के लिये अम्तमें उन्हें सब अनात्म पदार्थोंका परित्याग कर जिनेन्द्रकी शरण ली । अन्तमें वे कृतार्थ हुए, कृतकृत्य बने, और मोहारिजेता बन अविनाशो जीवनके भविपत्ति हो गए। राह्य रिपुओं की विजय के लिए अस्त्र, शस्त्र', सैन्यादिकी आवश्यकता पड़ती है, किन्तु इस जीवको जन्मजरामरण को विपदाओं के फन्दे से बचाने वाली १. इस लोकमें जन्म, जरा, मुत्युझे बचने के लिए कोई भी शरण नहीं है । हां, जन्म जरा, मरण रूप महाश का निवारण करनेकी सामर्थ्य जिन शासनके सिवाय अन्यत्र नहीं है।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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