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________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय यदि किसी में शक्ति है तो वह है कारिविजेता जिनेन्द्र को वीतरागताका लोकोत्तर भार्ग । पूलाचार में कहा है-- "जम्म-जरा-मरण-समाहिदम्हि सरणं ण विज्जदे लोए। जम्भमरणमहारिउवारणं तु जिणसासणं मुत्ता ।" पुण्यानुबन्धी वाङ्मय भरवती सरस्वतीक भण्डारको महिमा नसा है सके प्रसाद यह प्राणी मोहान्धकारसे बचकर भालोकमय आत्मविकासके क्षेत्रमें प्रगति करता है। इस युग में इतने वेगसे विपुल सामग्री भारतीक भव्य भवन में भरी जा रही है कि उसे देख कविकी सूक्ति स्मरण भाती है "अनन्तपारं किल शब्दशास्त्रं स्वल्पं तथायुबंवश्च विनाः । सारं ततो ग्राहमपास्य फल्गु हसर्यथा क्षीरमिवाम्बुराशेः ।।" शास्त्रसिन्धु अपार है। जीवन थोड़ा है । विघ्नोंकी गिनती नहीं है । ऐसी स्थितिमें ग्रन्थ-समुद्रका अवगाहन करने के असफल प्रयासके स्थान में सार बातको ही ग्रहण करना उचित है। असार पदार्थका परित्याग करना चाहिये, जैसे हंस अम्युराशिमें से प्रयोजनीक दुग्ध मात्रको ग्रहण करता है। साधक उस ज्ञानराशिसे ही सम्बन्ध रखता है, जो आत्मामें साम्यभावकी वृद्धि करती है तथा इस जीवको निर्माणके परम प्रकाशमय पधमे पतेचाती है। जो ज्ञान राग, द्वेष, मोह, मात्सर्य, दीनता आदि विकृतियों को उत्पन्न करता है, उसे यह कुमान मानता है। सत्पुरुष ऐसो सामग्रीको आत्मविघातक बताते है. जो आविष्कारके सदमें प्राणघातक, विष, फन्दा, यंत्र आदिके नामसे जगत्के समक्ष आती है ।' महापुराणकार भगवजिमनसेने वास्तव में उनको ही कवि तथा विद्वान् माना है जिनकी भारतीमें धर्म-कथांगत्व है । उनका कथन है-- १. "विसर्जतकूलपंजरबंधादिसु विणुवएसकरणेण । जा वलु पवटा मई मइ अण्णाणं त्ति पं वति ।।" -गो. जी. ३०२ । २. "त एवं कवयो लोके त एक प विचक्षणाः । येषां धर्मकथांगत्वं भारतो प्रतिपद्यते ।।" -महापुराण १, ६२ ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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