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________________ पत् ५५ अहंकारी प्राणी गिरते हुएको ठोकर मार और भी जल्दी पततके मुखमें प्रविष्ट कराता है, तब यह मानव प्रकृतिका अध्येता, कमके विचित्र विपाकका विचार करते हुए डिगते हुए मुमुक्षुको सत्साहस, सविवार, सहयोग, सहायता आदि प्रदान कर समुन्नत करने में अपनेको कृत कार्य मानता हूँ | जिस प्रकार गाय अपने बछड़ेपर अत्यन्त प्रेम धारणकर उसकी विपत्तिका निवारण करती है, उसी प्रकार यह साधक साधनाके मार्ग में उद्यत अन्य साधक बंधुओं के प्रति वात्सल्य सच्चे प्रेमको धारण करता है। यह पवित्र विज्ञान ज्योतिको प्रकाश में लानेवाली जिनेन्द्रकी वाणी और उसके द्वारा प्रतिपादित सत्य एवं उसके अंगोपांगोंको विश्वकल्याण निमित्त दिव्य धर्मोपदेश, पुण्याचरण, लोकसेवा आदिके द्वारा विश्व में प्रकाशित करता है, जिससे उत्पथमें फेंगे हुए चीन-दुःखी मनका परिश्रण हो और वे यथार्थ साधना पथके पथिक बने। इस तत्त्वप्रकाशन के प्रशस्त उद्देश्य निमित्त समय तथा परिस्थिति के अनुसार वह प्रत्येक उचित और वैध मार्गका अवलम्बन कर विश्वकल्याण के क्षेत्र में अग्रसर होता है । इस पुण्य कार्यों को करने में उस साधकको अवर्णनीय और अचिन्त्य आनन्द प्राप्त होता है | भला, भोगों में लिप्स विषयोंके द्वारा उस तत्त्वज्ञानी के आत्मानन्दका क्या अनुमान कर सकते हैं ? मिश्रोकी मिष्टता, वाणी की नहीं, अनुभवको वस्तु है । इस प्रकार परमार्थतः आत्मानुभवका रस अनुभूतिकी ही वस्तु है एक आचार्य लिखते है - "सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्ममस्ति वाचामगोचरम् ।" सम्यक्त्व आत्मानुभव यथार्थमें बहुत सूक्ष्म है और वह दाणी के परे है । यह जोन मोहकी मदिरा पीनेके कारण उन्मत्त हो अज्ञानसे उस वास्तविक आनंद से वंचित रहता है। जिस प्रकार एक कुत्ता मुखी हड्डियोंके टुकड़ों को अपनी दाढ़में घर चबाता है और अपने मुखरो निकलनेवाले रक्त को चाटकर कुछ are लिए आनन्दका अनुभव करता है और पश्चात् अपनी अज्ञ चेष्टाके कारण व्यथित हो दीखा करता है, उसी प्रकार विषयासक्तिमें कृत्रिम सुखकी झलक देख अनारमज मस्त हो अपने आपको भूल जाता है और अपने स्वाभाविक, प्राकृतिक ज्ञान, आनन्द, शक्ति तथा स्वरूपको विस्मृत कर बैठता है तथाविरुद्ध प्रवृति करनेके कारण दोन-हीन बनता है । उसकी अवस्था बनारसीदासजीके शब्दों में बबरुले पत्ते -जैसी हो जाती है "फिरे डांवाडोल सो, करमकी कलोलनि में, ह्व' रही अवस्था बनरूले जैसे पातकी ।"
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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