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________________ १५८ बेनशासन जायदि जोवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । इति जिणवरेहि भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा॥" ___-१२८-१३० । "जो संसारी जीव है वह राग, द्वेष आदि भाखोंको उत्पन्न करता है, जिनमें कर्म आते हैं और कर्मोंसे मनुष्प, १ कादि गतियों को पति होनि है । गती में जानेपर शरीरको प्राप्ति होती है। शरीरसे इन्द्रियां उत्पन्न होती है । इन्द्रियों शाग विषयों का ग्रहण होता है जिससे राग और द्वेष होते हैं। इस प्रकारका भाव संमारचक्रमें भ्रमण करते हुए जीवके मन्ततिको अपेक्षा अनादि-अनन्त और पर्यायको दृष्टिसे सान्त भी होती है, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है।" इस विवेचनसे यह स्पष्ट होता है कि यह कम-चक्र रागद्वेषके निमित्तसे सतत चलता रहता है और जब तक राग, द्वेष, मोहके वेगमें न्यूनता न होगी तब तक यह चक्र अबाधित गतिसे चलता रहेगा 1 राग-द्वेषके बिना जीवकी क्रियाएं जन्धनका कारण नहीं होती । इस विषयको कुन्दकुन्द स्वामी समयप्रामृत में समझाते हुए लिखते हैं कि-' कोई व्यक्ति अपने शरीरको तलसे लिप्तकर पूलिपूर्ण स्थानमें जाकर शस्त्र-संचालन रूप व्यायाम करता है और तार, केला, बांस आदिके वृक्षोंका छेदन-भेदन भी करता है। उस समय धूलि उहकर उसके शरीरमें चिपट जाती है। यथार्थ में देखा जाय तो उस व्यक्तिका शस्त्र संचालन शरीरमें धूलि चिपकनेका कारण नहीं है। वास्तविक कारण तो तलका लेप है, जिससे धूलिका सम्बन्ध होता है। यदि ऐसा न हो, तो कही व्यक्ति जब बिना तल लगाये पूर्वोक्त शस्त्र संचालन कार्य करता है-तब उस समय वह धूलि शरीरमें क्यों नहीं लिप्त होती ? इसी प्रकार राग-द्वेषरूपी तलसे लिप्त आत्मामें कम-रज आकर चिपकती है और आत्माको इतना मलीन बना पराधीन कर देतो है कि अनन्तशक्तिसम्पन्न आत्मा कीतदासके समान कर्मो के इशारेपर नाचा करता है। इस कर्मका और आत्माका कबसे सम्बन्ध है ? यह प्रश्न उत्पन्न होता है। इसके उत्तरमें मायार्य कहते है कि- कर्मसन्तति-परम्पराको अपेक्षा ग्रह सम्बन्ध अनादिसे है। जिस प्रकार खानिसे निकाला गया सुवर्ण किट्टकालिमादिविकृतिसम्पन्न पाया जाता है, पश्चात् अग्नि तथा रासायनिक द्रव्योक निमित्तसे विकृति दूर होकर शुद्ध सुवर्णको उपलब्धि होती है, उसी प्रकार अनादिसे यह आत्मा कर्मोकी विकृतिसे मलीन हो भिन्न-भिन्न योनियोंमें पर्यटन करता फिरता है । तपश्चर्या, आत्म-श्रद्धा, आत्म-बोधके द्वारा मलिनताका नाश होनेपर यही आत्मा १. समयसार गा० २४२-२४६ ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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