SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१४ जैनशासन प्रयोजनसे अधिक सवारी रखना, आवश्यक पदार्थीका अधिक संग्रह करना, दूसरेके वैभवको देखकर विस्मय धारण करना। इससे यह व्यक्त होता है, कि धन दौलतके प्रति तुम्हारे हृदयमें मोह है । बहुत लोभ करना, बहुत भार लादना ये पाँच अतीचार-दोष परिग्रहपरिमाणवतो कहे गये हैं। इरा परिग्रहपरिमाणवतके स्वरूप में यह बताया है कि अपनी आवश्यकता तथा मनोवृत्तिके अनुसार धन, धान्यादिकी मर्यादा बांध लेनेसे चित्त लालचके रोगसे मुक्त हो जाता है। मर्यादाकं बाहरफी संपत्तिके बार में "सतोषिकेषु निस्पृहता का भाव रखना आवश्यक कहा है। अहिंसा के विषय मे बताया है कि वह प्राथमिक साधक यह प्रतिज्ञा करे कि मैं संकल्प पूर्वक मनसा, वाचा, कर्मणा, कृत. कारित, अनुमोदना द्वारा किसो भो प्रस जीव (mobile creature) का प्राप्तधात न करूगा, तब उसे स्थूल हिंसाका त्यागी कहेंगे । इम परिभाषासे पंस भक्षण, शिकार खेलना भादिका त्याग इस अहिंसकके लिए अनिवार्य है ! उसक पंच अतीचार इस प्रकार कहे गये हैं, १ अंगोंको छंदना, २ दुर्भावपूर्वक बांधना, ३ पीड़ा देना, ४ बहुत बोझा लादना, ५ आहार देने में त्रुटि करमा वा आहार न देना । इनके त्याग द्वारा अहिंसात्मक दृष्टिका पोषण होता है । रत्नकर४श्रा व काचार, सामारधर्मामृत आदि ग्रन्थोंसे यह विषय स्पष्टतया तथा व्यवस्थित रूपसे समझा जा सकता है । इस विषयका प्रतिपावन पूर्णत या मनोवैज्ञानिक है । जैनियों में जो अहिंसात्मक नत्ति का यथाशक्ति पालन है, उसका कारण वैज्ञानिक शैलीसे प्रकाश डालने वाले सत्साहित्यका स्वाध्याय, प्रभाव तथा प्रचार है। इन अहिंसा आदि व्रतों के श्रेष्ठ आराधक दिगम्बर जैन महामुनि आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज से मैंने एक बार पूछा था--"महाराज, इस युगमें उम्नति तथा शान्तिका उपाय क्या है ?" आचार्य महाराजने जी समाधान किया था, यथार्थ में विश्व की विकट समस्याक्षोंका सरल सुधार उसोमें निहित है। महाराजने कहा-'बिना पाप और पापतिका त्याग किये, न व्यक्तिका सुधार हो सकता है, न समाजका, न राष्ट्रका, और न विश्वका । जिस जिस जीवने हिंसा, छ, छोरी, कुशील तथा अधिक तृष्णाका यथाशक्ति परित्याग किया है, उसका स्तना कल्याण हुआ है । जिन्होंने हिंसादि पापोंकी बोर. प्रवृत्ति की है, वे दुःखी हए है। वास्तवमें जगत्का मच्चा कल्याण आचार्य महाराजके कयनानुसार "पाप तथा पापबुद्धिके परित्यागमें हैं।" महर्षि कुम्बकुम्वका कितना पवित्र उपदेश है "जिणक्यणमोसहमिणं विसयसुहविरेयण अमियभूयं । जरमरणवाहिहरणं स्वयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥"-दर्शनप्राभूत
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy