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________________ विश्वसमस्याएँ और जैनधर्म 'जिम भगवान्को वाणो परमौषधि रूप है । यह विषय सुखफा त्याग करावी है । यह अमत रूप है। मरा-मरण, व्याधिको दूर करती है तथा सर्व दुःखोंका क्षय करती है।' यह जिनेन्द्र दाणी शिक्षक संपत्ति है। प्रत्येक व्यक्ति की यह अधिकार है, कि इस अभयप्रद अमृतवपिणी जिनवाणीके रसास्वादन द्वारा अपने जीवनको मंगलमय बनावे ! यह वीतरागका शासन पहले समस्त भारतमें वन्दनीय था। यह राष्ट्रधर्म रह चुका है। सांप्रदायिक संकटों तथा बन्धिोंके लोमहर्षण करनेवाले अत्याचारों के कारण इसके आराधकोंकी संख्या कम हुई । इन अस्याचारों के कारण और स्वरूपपर प्रकाश डालना आवश्यक नहीं प्रतीत होता। आज विज्ञान प्रभाकरके प्रवाशके कारण जो सांप्रदायिकताका अन्धकार म्यून हा है, उससे इस पवित्र विशाके प्रसारको पूर्ण अनुकूलता प्रतीत होती है । जिनवाणोकी महत्ताको हृदयंगम करने वाले व्यक्तियोंका कर्तव्य है कि इस आत्मोद्वारक तत्त्वज्ञानके रसास्वादन द्वारा अपने जीवनको प्रभावित करें, और जगतको भी इस ओर आकर्षित करें, ताकि सभी लोग अपना सच्चा पल्याण कर सके। इस कार्य में निराशाके लिए स्थान नहीं है । सत्कार्योंका प्रयत्न सतत चलता रहना चाहिए। जितने जीवोंको सम्यक्ज्ञानको ज्योति प्राप्ति होगी. उतना ही महान् लाभ है। कम से कम 'बयः पन्नवतोजत्येव"-प्रयत्न करनेवालोंका तो अवश्य कल्याण है । हमें संगठित होकर संसारके प्रांगण में यह कहना चाहिए जिनवाणी सुधा-सम जानिके नित पीजो धीधारी। १. आंघचरितम्, Indian Antiquary, Saletore's Medieval jainism, Dr. Von Glasenapp's Jaininus, Smith's History of India, आदि पुस्तकोंसे इस बातका परिज्ञाम हो सकता है। २. ''आत्मा प्रभावनीयः रत्नत्रयतजसा सततमेव । दानतपोजिमपूजाविधातिशयपत्र जिनधर्मः ।"-पु. सि० श्लोक ३० । -रत्नत्रयके तेज द्वारा अपनी आत्माको प्रभावित करे तथा दान, तपश्चर्या, जिनेन्द्रदेवको पूजा एवं विद्याकी लोकोत्तरताके द्वारा जिनशासनके प्रभावको जगत्में फैलाबै ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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