SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिसा के आलोक में {w देख लो तो तुम सर्वशक्तिशाली परमात्मा से प्रार्थना करोगे कि भविष्य में मुझे एक घण्टे के लिए भी युद्ध न देखना पड़े 19 वर्तमान शुद्धों को प्रणाली और गतिविधिको देखते हुए यह कहना होगा कि उनका वाह्य रूप अच्छा बताया जाता है और उनके अन्तरंग में दुष्टता, त्या चार, दोनोत्पीड़न आर्थिकी कुत्सित भावनाएँ विद्यमान हैं । इम स्वार्थपूर्ण युद्धसे न्यायका संरक्षक, पानक, दीनोंका उद्धारक धर्मयुद्ध बिलकुल भिन्न है । वर्तमान युद्ध तो इस बातको प्रमाणित करते हैं कि जड़ता के अखण्ड उपासक पश्चिमके वैज्ञानिक जगत्ने हो यह स्वन्परध्वंसी अविद्या मिखाई । स्वर्गीय एण्ट्रचून महागवने लिखा था, एक युद्धके अनन्तर दूसरा छिड़ गया और उससे छुटकारा नहीं दीखता । वास्तविक वात तो यह है कि पश्चिमी सभ्यता में कुछ खरावी अवश्य है जो स्व-विनाशिनी प्रवृतियोंकी पुनरा वृत्तिकी ओर प्रतिरोधके उपायके विना प्रेरित करती है ।' १२ प्राथमिक साधकको अपने उत्तरदायित्वका स्वयाल रखते हुए राष्ट्र आदिके संरक्षण निमित्त मजबूत हो विरोधी हिंसा के क्षेत्र अवतीर्ण होना पड़ता है । समाज कल्याणार्थ राष्ट्र के मार्ग में दुर्जनरूपी काटोंको दूर किये बिना राष्ट्रका उत्थान और विकास नहीं हो सकता । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि कष्टकके नामपर रास्तके मूलरूप बुनियादी पत्थरोंको भी उखाड़ कर फेंका जाए। ऐसी अवस्था में यदि हम कण्टकों से बचे, तो गहरे गड्ढे अपनी गोद में गिरा हमें सदाके लिए बिना सुलाए न रहेंगे । एकान्तरूपसे युद्ध में गुणको ही देखनेवाला सारे संसारको भयंकर विसुवियस ज्वालामुखी नहीं, पौराणिक जगत्मे वर्णित प्रलयको प्रचण्ड ज्वालापुञ्जरूप में परिणत कर देगा । उस सर्वसंहारिणी अवस्था में क्या आनद और क्या विकास होगा ? नोट्ोकी दृष्टिमें मनुष्य भूखं व्याघ्रके समान है । उसके अनुसार पशु-जगत्का भात्स्व न्याय उचित कहा जा सकेगा। लेकिन, दिवंकी और प्रवृद्ध मानवोंका कल्याण पशुता की ओर झुकने में नहीं है। इस विश्व में महामानव धन हमें एक ऐसे कुटुम्बका निर्माण करना है, जिसमें रहने 1. Take my word for it, if you had seen one day of war, you would pray to Almighty God that you might never again see an hour of war." 국 "One war follows another and there seems to be no escape. Surely there must be something wrong in Western civilisation itself, which causes self-destructive tendencies to recur, without and apparent means of prevention." C. F. Andrews article in Modern Review Jan 40. p. 32,
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy