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________________ अहिंसा के आलोक में १११ I कारण निराश हो काफी गड़बड़ी की। दोनों ओरसे रणभेरी भजी | युजमें सुलोचनाके पति भरतेश्वर के सेनापति, जयकुमारकी विजय हुई। उस समय शान्ति स्थापित होनेपर महाराज अकम्पनने सम्राट् भरत के पास अत्यन्त आदरपूर्वक निवेदन प्रेषित करते हुए अपनी परिस्थिति और अकीर्तिकी ज्यादतीका वर्णन किया । साथ में यह भी लिखा कि मैं अपनी दूसरी कन्या अकीर्तिको देने को तैयार हूँ | इस चर्चाको शात कर भरतेश्वरको अकम्पन महाराजपर तनिक भी रोष नहीं आया प्रत्युत अर्ककीर्ति परित्रपर उन्हें घृणा हुई।" उन्होंने कहाअकम्पन महाराज तो हमारे पूज्य पिता मगवान् ऋषभदेव के समान पूज्य मोर आदरणीय है । अर्कोति वास्तव में मेरा पुत्र नहीं, न्याय मेरा पुत्र है । न्यायका रक्षण कर महाराज अकम्पन ने उचित किया | उन्हें बिना संकोचके अर्क की तिको दण्डित करना था। इस कथानक से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन क्षत्रिय नरेश न्याय देवताका परित्राण और कर्तव्य पालन में कितने अधिक तत्पर रहते थे । वास्तव में "शमो हि भूषणं यतीनां तु भूपतीनाम्" यह महिकों को दृष्टि रही है। 14 दशरीर और आत्माको भेद - ज्ञान ज्योतिके प्रकाश में पृथक-पृथक अनुभव करने वाला अन्तरात्मा सम्यक्त्वी कर्त्तव्या नुरोधसे मंत्र-तंत्र-यंत्र आदिकी सहायता लेअपना सर्वस्व तक अर्पण कर वीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु, धर्मके आयतन आदिको रक्षा करने में उद्यत रहता है 1 १. महाराज अकम्पन के दूत सुमुखसे चक्रवर्ती भरतेश्वरने कंपन की पुज्यताको इन शब्दों द्वारा प्रकाशित किया -- "गुरुभ्यो निर्विशेषास्ते सर्वज्येष्ठाश्च संप्रति ।। ५१ ।। गृहाश्रमे त एवार्ष्यास्तैरेवाहं च बन्धुमान् । निषेद्धारः प्रवृतस्य ममाप्यन्याय वर्त्मनि ।। ५२ ।। पुरवो मोक्षमार्गस्य गुरवो दान संततेः श्रेयाश्च चक्रिणां वृत्ते येथे हास्म्यहमग्रणीः ।। ५३ ।। तथा स्वयंवरस्येमे नाभूवन् यद्य कम्पनाः । ः । कः प्रर्तयितान्योऽस्य मार्गस्यैष सनातनः ॥ ५४ ॥ कीर्तनीयामीतिषु ॥ ५९ ॥" "अर्क की तिरकी तिम "उपेक्षितः सदोषोऽपि स्वपुत्रश्चक्रवर्तिना । इतीदमयशः स्यायि व्यधायि सदकम्पनैः || ६६ ॥ इति संतोष्य विश्वेशः सौमुख्यं सुमुखं नयन् । हिस्वा ज्येष्ठं तुजं तो कमक रोम्म्यायमोरसम् ।। ६७ ।। " - महापुराण पर्व ४५
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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