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________________ कल्याणपथ ३२१ राष्ट्रों नमःणमें समा रहको सहन सकता है: चक्र करुणापूर्ण शासनका अंग है। धर्मको विश्वमान्य व्याख्या करुणाका भाव ही तो है। गभित्तामणि में लिखा है-- "दया-मूलो भवेद्धर्मो दया प्राणानुकम्पनम् ।" । धर्म दयामूलक है तथा जीवधारियोंपर अनुकम्पाका भाव रखना दया है। स्वामी समन्तभनने चक्रवर्ती तीर्थकर शान्तिनाथ भगवान्के धर्मवकको 'बयारोषितिधर्मचकम्"-करुणाकी किरणोंसे संयुक्त धर्मचक्र कहा है। नवमी सदीके महाकवि जिमसेनने जैनधर्मके प्रथम तीर्थकर भगवान् वृषभदेवको प्रणामांजलि अर्पित करते हुए लिखा है कि "वे श्रीसमन्वित, संपूर्ण ज्ञान साम्राज्य के अधिपति, धर्मचक्रके धारक एवं भव-भयका भंजन करनेवाले है।" इस चक्रको 'सर्व-सौख्यप्रदायो' कहा गया है। अझिा विद्याकी ज्योति द्वारा विश्वको आलोकित करनेवाले वृषभनाथ आदि महावीर पर्यन्त चोवीस तीर्थंकरोंका बोध करानेवाले चौबीस बारे अशोकचक्रमे पाये जाते हैं । यह बात विश्वफे इतिहासदेत्ता जानते है, कि अहिला महाविद्याका निर्दोष प्रकाश जैन तीर्थंकरोंसे प्राप्त होता रहा है । आइने अकबरी आदिसे ज्ञात होता है कि अशोकके जीवनका प्रारंभ काल जैनन्त्रम से सम्बन्धित रहा है। भारतके प्रधान मन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरून अमेरिकावाभियोंको राष्ट्रध्वजका स्वरूप समताते हुए कहा था कि यह चक्र उन्नति और धर्म मार्गपर चलनेके आह्वानको धोतित करता है । भारतकी आकांक्षा है कि वह चक्र द्वारा प्रकाशित आदर्शका अनुगमन करे ।' यदि भारत राष्ट्र धर्मचक्र के गौरवके अनुरूप प्रवृत्ति करने लगे, तो एक नवीन मंगलमय जगतका निर्माण होगा, जहाँ शक्ति, संपत्ति, समृद्धि तथा संपूर्ण उज्ज्वल कलाओंका पुण्य समागम होगा । अब तक लोकनायकों तथा ग्राम-पुरवासियों द्वारा करुणा कल्पलताके मूल में प्रेम, त्याग, शील, सत्य, संयम, अकिंचनता माविका जल न पढ्ढेचंगा, तब तक सुवास संपन्न आनन्द रूप सुमनोंकी कैसे उपलब्धि होगी? जब तक हम जोबदयाके कार्यक्रम को महत्वपूर्ण मान उस और शक्ति नहीं लगाते, तब तक पापचक्रको अनुगामिनी विपदाएँ दूर नहीं होंगी। महापुराणकार जिनसेन स्वामीका कथन है, कि धर्मप्रिय सम्राट भरसके शासनमें सभी प्रभाजन पुग्प परित्र बन गये थे, कारण शासक का पदानुसरण 1, Thic Chakra signifies progress and a call to tread the path of righteousness. India wished to follow the ideal symbolised by the wheel." -Speech at Vancouver (America) vidc Statesman, 6-11-49.
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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