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________________ ३०८ जैनशासन और सत्ताके बलपर सत्यका द्वार प्रायः अवरुद्ध रहा करता है । वे सत्ताधीश शिकारी की मनोभावना वाले कहीं भी जाते हैं और दूसरोंकी दुर्बलताओं से लाभ उठा प्रजातन्त्र जनतन्त्र, साम्राज्यवाद, साम्यवाद आदि मोहक सिद्धान्तोंके नामपर स्वार्थ पोषण करते हैं ऐसी व्याघ्रवृत्ति वाले राष्ट्रों या उनके नेताओं कारण विश्वशान्तिपरिषद् League of Nations प्राय: विनोदजनक ही रही । गये-बड़े सम्मेलन पवित्र उद्देश्योंके संरक्षण तथा बृहत् मानवजातिमें बन्धुत्व स्थापनार्थ किये जाते हैं, किन्तु शिकारी भावना समन्वित प्रमुख पुरुषोंके प्रभाववश अंधेके रस्सी बॅटने और नकरी द्वारा बेटी रोके चरे जाने जैसी समस्या हुआ करती है । पश्चिम में विज्ञानने ईश्वरके अस्तित्वको मानने में अस्वीकृति व्यक्त की, जड़तत्त्वको ही सब कुछ बताया इस शिक्षणके कारण वहाँ धार्मिक उन्हों की यो समाप्ति हो गई, किन्तु धर्मान्धताके अन्त होनेका यह परिणाम नहीं हुआ, कि विशुद्ध धार्मिक दृष्टिवाले सत्पुरुषोंका विकास हुआ हो । विश्वविद्यालयोंकी शिक्षाने ऐसे मनाध्यात्मिक व्यक्तियोंकी नवीन सृष्टि की, जो अपना सानंद अस्तित्व तथा समृद्धिको चाहते हैं। इसमें बाधा आती हो, तो उसे निवारण करनेके लिए चे किसने भी मनुष्यों को यममन्दिर में भेजने को तैयार है। पशुओंको तो वे बेजबान होनेके कारण बेजान मानते हैं । वास्तव दृष्टिले देखा जाय तो आत्मतत्त्व अविनाशी हूँ | इसमे आदर्श की रक्षा करते हुए मृत्युके मुखमें प्रवेश करना कोई बुरा नहीं है। सोमवेवसूरि कहते हैं > "कण्ठगतैरपि प्राणैर्नाशुभं कर्म समाचरणीयं कुशलमतिभिः ||" -नी वा० ३७, २०१ उत्कृष्ट बुद्धिवाले व्यक्तियोंको कष्ठगत प्राण होनेपर भी निन्दनीय कार्य नहीं करना चाहिए । यह है भारतीय पवित्र भादर्श | जड़वादी प्राणरक्षा के नामपर जगत् भरके संहारको उद्यत होता है, तो आदर्शवादी आध्यात्मिक अपने ध्येयकी रक्षार्थ जीवनका भी मोह नहीं करता है। मोगासक्त संसारको महर्षि कुन्यकुन्छकी चेतावनी ध्यान में रखनी चाहिए। "एक्की करेदि पावं विसयनिमित्तेण तिष्यलोहेण रियतिरियेसु जीवो तस्स फलं भुंजदे एक्को ॥ १५ ॥ " - बारहअणुस्खा | यह जीव पांच इन्द्रियोंके विषयोंके अधीन हो तीव्र लालसापूर्वक पापोंको t अकेला करता है मोर 'अकेला' ही उनका फल भोगता है ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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