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________________ २९२ जैनशासन प्रिय वाली वाला मयूर जैसे सर्वोका उच्छेद करता है, उसी प्रकार मधुरभाषी नरेश शत्रुका विनाश करता है । "प्रियंवदः शिखीच द्विषत्सर्पानुच्छादयति ।। १२८, १४४ । शस्त्रोपजीवियोंके विषय में आचार्य कहते है"शस्त्रोपजीविनां कलहमन्तरेण भक्तमपि भुक्तं न जीर्यति । १०३,१३७ । शस्त्रञ्जारा जीविका करनेवालोंका कलह के बिना खाया हुआ अन्न तक हजम नहीं होता है । "चिकित्सागम इव दोष विशुद्धिहेतुर्दण्डः । १ १०२ । जैसे वैद्यकशास्त्र शरीर के विकारोंको दूर करता है, उसी प्रकार दण्ड द्वारा दोषोंका भी अभाव होता है । आचार्य सोमदेवका कथन है " अपराधकारिषु प्रशमः यतीनां भूषणं न महीपतीनाम् ॥" अपराधी व्यक्तियोंके प्रति शान्त व्यवहार साधुओंके लिये अलंकार रूप, है, नरंशोंके लिए नहीं । शासन व्यवस्थाके लिए अपराधीको उचित दण्ड देना चाहिये। महाराज पृथ्वीराजने मुहम्मदगोरीको पुनःपुनः छोड़ने में भूल की । यह सूत्र बताता है कि यतिका धर्म भूपतिने स्वीकार करके जो अकर्तव्यतत्परता दिखाई, उससे पृथ्वीराजको बुदिन दिखे और देशकी संस्कृतिको अभिभूत होने का अवसर आया । राजद्रोहियों अथवा दुष्टोंका तनिक भी विश्वास नहीं करना चाहिये । कारण जी० १० वा० ३७, पृ० ७८ । Γ "अग्निरिव स्वाश्रयमेव दहन्ति दुर्जनाः ।" जी० वा० । आचार्य कितने महत्वको शिक्षा देते हैं 'न मह्ताप्युपकारेण चित्तस्य तथानुरागो तथा विरागो भवत्यल्पेनाप्यपकारेण' महान् उपकार करनेसे चित्तमें उतना अनुराग नहीं होता जितना विराग रिका कपन है कि अल्प भी अपकार या क्षति पहुँचनेसे होता है । सोमदेव प्राणवातकी अपेक्षा कीर्तिका लोप करना अधिक दोषपूर्ण है"यशोवधः प्राणिवयाद गरीयान् ।" भगवान बाहुबलि स्वामी के द्वारा युद्धमें तत्पर युद्धके लिये अपनी उत्कण्ठा व्यक्त करते हुए कहते है - यशस्तिलक | भरतेववर के दूत से
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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