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________________ ५० जैनशासन रवको भूल महाकवि बनारसीदास मी शब्दों में "ब्रह्मघाती मिथ्यासी महापातकी" के नामसे पुकारा जाता है, वह भला कैसे आत्मजागरणके उज्ज्वल पथपर एकदम चल सकता है ? रोगाक्रान्त नेत्र जिम प्रकार प्रकाशको देख पीड़ाका अनुभव करते हुए आँखोंको मोच अंधेका अनुकरण कराते हैं, इसी प्रकार मोह-रोगसे पीड़ित अविवेकी प्राणी विषय-भोगकी लालसासे आकर्षित हो सम्यक्ज्ञानके प्रकाशपूर्ण जीवनके महत्त्वको भुला भोगी और विषयासक्तको जिन्दगीको हो अपने जीवनका आदि तथा चर्म लक्ष्य समझता है । संत समागम, पवित्र ग्रंथोंका अनुशीलन और सुदैवसे आत्मनिर्मलता के योग्य सुदिन के आनेपर किसी सौभाग्यशालीकी मोहावकार - निमग्न आत्मा में निर्मल ज्ञानसूर्यके उदयको सूचित करनेवाली विवेक- रश्मियाँ अपने पुण्य प्रकाशको पहुँचा जीवनको अलोकित करने लगती हैं। उस समय वह आत्मा निर्वाण सुख के लिए लालायित हो अपना सर्वस्व माने जानेवाले धन-वैभव आदि परिकरको क्षणभरमें छोड़नेको उद्यत हो जाता है। ऐसा ही प्रकाश जैन सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्यको ब्रह्म केवल भद्रबाहु मुनीन्द्रके सन्निध्य में प्राप्त हुआ था। इसीलिए उन्होंने अपने विशाल भारतके साम्राज्यको तृणवत् छोड़कर आत्म-संतोष और ब्रह्मानन्दके लिए दिगम्बर अकिंचन गुद्रा धारणकर श्रमणबेलगोलाकी पुण्य वीथियोंको अपने पदचिन्हों पवित्र किया था । जिस प्रकार लौकिक स्वाधीनताका सच्वा प्रेमी सर्वस्वका भी परित्याग कर फाँसी के तहको प्रेम से प्रणाम करते हुए सहर्ष स्वीकार करता है, उसी प्रकार निर्वाणका सच्चा साधक और मुमुक्षु तिल-तुष मात्र भी परिग्रहसे पूर्णतया सम्बन्ध - विच्छेद कर राग-द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकृतियोंका पूर्णतया परित्याग कर शारीरिक आदि बाधाओंकी और तनिक भी दृष्टिपात न कर उपेक्षा वृत्तिको अपनाकर आत्मविश्वासको सुदृढ़ करते हुए सम्यक् ज्ञानके उज्ज्वल प्रकाश में अपने अचिन्त्य तेजोमय आत्म-स्वरूपकी उपविषनिमित्त प्रगति करता है । आत्मशक्तिकी अपेक्षा प्रत्येक आत्मा यदि हृदयसे चाहे और प्रयत्न करे, तो वह अनन्त शान्ति, अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान आदिसे परिपूर्ण आत्मत्वको प्राप्त कर सकता है। किन्तु मोह और विषयोंकी आसक्ति आत्मोद्धार की ओर इसका कदम नहीं बढ़ने देती । मोहके कारण कोई-कोई मात्मा इतना अंष और पंगु बन जाता है कि यह अपनेको ज्ञान ज्योतिबाला आत्मा न मान जड़तत्त्वसदृश समझता है 1 यह शरीर में आत्मबुद्धि करके शरीर के ह्रासमें आत्माका ह्रास और उसके विका समें आत्म-विकासकी यज्ञ कल्पना किया करता है । प्रबुद्ध कषि बलरामजी
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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