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________________ २४६ जैनशासन और ब्रूतग जिनधर्मपरायण राजा थे।" बूतग शास्त्रज्ञ और शस्त्रज विख्यात था । महाराज मारसिंह गंगवंशफे शिरोमणि पराक्रमी निर्भीक, धार्मिक जैन नरेश थे। पांचवी सदी में कदंब नरेश मगश वर्मा और उनके पुत्र रविवर्मा अपने पराक्रम मोर जैनधर्मके प्रेमके लिए प्रख्यात थे । रविवर्माने कातिक सुदीके अष्टाहिका पर्वको महोत्सवपूर्वक मनाने की राजाज्ञा' प्रचारित की थी। राष्ट्रकूटों में जैनधर्मको विशेष मान्यता थी । सम्राट अमोघवर्ष जिनेन्द्रभक्त, विद्वान्, पराक्रमी, पुण्यचरित्र तथा व्यवस्थापक नरेश थे। उनका विश्व के चार विख्यात नरेशों में स्थान था । नवमी सदी का एक अरब देशका यात्री लिखता है" कि अमोघवर्षके राज्य में सर्व-प्रकारको सुव्यवस्था थी । लोग शाकाहारी थे । सन् ८५१ में एक टूसरा करबका यात्री लिखता है-"अमोघवर्षके राज्यमें धन सुरक्षित था, पोरी डकैतीका अभाव या वाणिज्य उन्नतिके शिखरपर था, विदेशियों के साथ सम्मानपुर्ण बहार होता था ।" राष्ट्रकूट वंशम मंकेग, श्री विजय, नरसिंह आदि अनेक पराक्रमी जैन प्रतापी पुरुष हुए है । अमोघवर्षने अपने जीवन के संध्याकालमें दिगम्बर जैनमुनिकी मुद्रा भगवत् जिनसेनाचार्य के प्राध्यास्मिक प्रभाववश घारणा की थी। राष्ट्र कूटवंव शके जनवीरोंके परित्रके अध्येता विद्वान का अल्टेकर अपनी पुस्तक 'राष्ट्रकुट' में लिखते है -जन नरेशों तथा सेनानायकोंफ ऐसे कार्योको देखते हुए यह बात स्वीकार करने में हम असमर्थ हैं कि जनधर्म तथा बौद्ध धर्मको शिक्षाके कारण हिन्दू भारत में सांप्रामिक शौर्यका ह्रास हुआ है।" १. "येन संप्रतिना.......साधुवेषधारिनिकिकर जनप्रेषणेन अनार्य देशेऽपि साधुविहारं कारितवान् ।" -खरतरगच्छावलिसंग्रह, पृ० १७ । २. Mediaevat jainistra pp. 10-30. 5. Ibid and Some Historical Jain kings and Heroes. -Jain Antiquary Vol, vii No lp. 21. ४, Med, Jainism pp. 30-34. 4. "Raskitrakuta territory was vast, well peopled commercial and fertile. The people mostly lived on vegetable diet."Bombay Gaz. yot, I pp. 526-30. "In the face of achievements of the Jain princes and generals of this period, we can hardly subscribe to the theory that Jainism & Buddhism were chiefly responsible for the military emasculation of the population, that led to the fall of the Hindu India,"—The Rastrakutas p. 316-17
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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