SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विश्व-निर्माता २१ नामसे विख्यात योगदर्शन भी ईश्वरको जगत्‌का कतई नहीं मानता। वह क्लेश कर्मविपःकाय असम्बन्चित पुरुष-विशेषको ईश्वर कहता है'। न्याय और वैशेषिक सिद्धान्तने मूल परमाणुओं आदिका अस्तित्व मानकर ईश्वरको जगत्वा उपादान कारण न मान निमित्तकारण स्वीकार किया है । पूर्वमीमांसा दर्शन भी निरीश्वर सांख्य के समान कर्त्तावाद निरोध करता हुँ । उत्तर-मीमांसा अर्थात् वैशन्त में भी ईश्वर कतृत्वका तत्त्वतः दर्शन नहीं होता है । उस दर्शन में इस विश्वको ब्रह्मका अभिव्यक्त विवर्त माना है 1 इस प्रकार, त्रान्त भावसे दार्शनिक वाङ्मयका परिशीलन करनेपर विदित होता है कि जैनदर्शन के कर्तृत्व सिद्धान्त में बहुतमे दार्शनिकोंने हाथ बंटाया है । फिर भो, यह देखकर आवचयं होता है कि केवल जैन दर्शन पर ही नास्तिकताका दोष लादा गया है। इसका वास्तविक कारण यह मालूम होता है कि जैनधर्मऋग्वेदादि वैदिक वाङ्मयको अपने लिए पत्र प्रदर्शक नहीं मानता। शुद्ध अहिंसात्मक विचारप्रणालीको अपनी जोवनिधि माननेवाला जैन तत्वज्ञान हिसात्मक बलि- विमान के प्रेरक वैदिक वाङ्मयका किस प्रकार समर्थन करेगा ? इसका क यह नहीं है कि जैनदार्शनिक वेद (ज्ञान) के विरोधी हैं। धर्म प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग रूप अपने अहिंसामय विशिष्ट ज्ञानपुञ्जका आराधक है । भगवजिनसे ने अहिंसामय निर्दोष जेनधर्म में वर्णित द्वादशांगमय महाशास्त्रों को ही वेद माना है । - (आदिपुराण) जैन दर्शन क्रोध मान-भाया - लोभ, हास्य, भय विस्मय आदि विकारोंसे रहित वीतराग, सर्वज्ञ परम आत्माको ईश्वर मानता है । वह विश्वकी क्रीड़ा में किसी प्रकार भाग नहीं लेता । वह कृतकृत्य है, विकृतिविहीन है तथा सर्व प्रकारको पूर्णताओं से समन्वित है। उसी परमात्माको राग, द्वेष, मोह, अज्ञान आदिसे अभिभूत व्यक्ति अपनी भावना और अध्ययनके अनुसार विचित्र रूपसे चित्रित करते है । आत्मत्वकी दृष्टि से हममें और परमात्मामें कोई अन्तर नहीं है, केवल इतना ही भेद है कि हममें देवी शक्ति प्रसुप्त स्थिति में हैं और उनमें उन गुणोंका पूर्ण विकास होनेसे आत्माएँ एकीस बन चुकी हैं इतनी निर्मल और प्रकाशपुर्ण है कि उनके आलोकमें हम अपना जीवन उज्जवल और दिव्य बना सकते हैं। विद्यावारिधि बैरिस्टर सम्पतरायजोने अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ 'को ऑफ नॉलेज' (Key of Knowledge ) में लिखा है - १. क्लेशकर्म विपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वर:" योगसूत्र ११२४॥ India — P. 189-191, २. देखो - मुक्तावली, The cultural Heritage of
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy