Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 330
________________ १२२ जेनशासन शासित वर्ग किया करता है । इस सदाचरणके प्रसादसे मर्वत्र समृद्धि और आनंद का प्रमार था। कविका यह कथन विशेष अर्थपूर्ण है कि सुकाल और सुराज्यवाले राजामें बड़ा निकट सम्बन्ध है ।' भारतीय शासकोंमें महाराज कुमारपाल बड़े समर्ष और लोकोपकारी नरेश हो गये हैं, जिनके प्रश्रयमे साहित्य और कलाका मड़ा विकास हुआ । कुमारपाल प्रतिबोध से ज्ञात होता है कि महाराज कुमारपाल अपने अन्तःकरणको द्वादश अनुप्रंक्षाओ-सद्भावनाओंसे विमल बनाते हुए अनासक्तिपूर्वक राज्यका कार्य करते थे। मामादिक सेवन में प्रवृद्धि हुई है । सोमदेव सुरिने कहा है"यत्स्यात्प्रमादयोगेन प्राणिषु प्राणहायनम् । सा हिंसा रक्षणं तेषामहिया तु सतां मता ||"-यशस्तिलक । अगावधानी अथवा रागद्वेषादिके अधीन होकर जो जीवधारियोंका प्राणहरण किया जाता है, वह हिरा है। उन जीवोंका रक्षण करना अहिंसा है । ससारमै हिसाकी महत्ताको सभी वम स्वीकार करते है। भुरालिम बादशाह अकबरने मांसाहारका परित्याग कर दिया था, 'जानवरोंको मारकर नमके मांसभक्षण द्वारा अपने पेटको पशुओंका कब्रस्तान मत बनाओ' । जिन्होंने पशु बलिदान को धर्मका अंग मान लिया है, उनके हृदय में यह बात प्रतिष्ठित करनी है कि बंदारे दीन-हीन प्राणियोंके प्राणहरणस भी कहीं कल्याण हो सकता है ? यथार्थम अपनी पशुतापूर्ण चित्त वृत्तिका बलिदान करने से और करूणाके भावको जगानेस जगज्जननीकी परितृप्ति कही जा सकती है। एसी कोन जननी होगी, जो अपनी संतति रूप जीवधारियोंके रक्त और मोससे आनंदित होगी ? जबसक विश्व वपन्यके जनक कर्म के बंधमें कारण हृदयको हिसात्मक विचारोंसे धोकर निर्मल नहीं किया जायगा, तब तक वाह्य प्रयत्लासे सौख्यकी सृष्टि स्वप्न साम्राज्य सदृश सुखकर समझो जायगी । प्रत्येकके हृदय मींदामें दयाके देवताकी मंगलमय आराधना जब तक नहीं होगी, सब तक निराकुल और निरापद सुखकी साधन-सामग्री नहीं प्राप्त हो सकती। अन्तःकरणका घाव बाहरी मरहम पट्टीसे जैसे आराम नहीं हो सकता है, वैसे ही क्रूरतापूर्ण त्ति के कारण ओ जीव पापाचरण जानकर या बिना जाने करता है, उसका परिमार्जन किए बिना. विश्वशान्तिकी बातों आदिसे कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। 'अहो रूपम्, महो ध्वनि:' के आदर्श पर पारस्परिक गौरव के आदान-प्रदान द्वारा भी जगनती जटिल समस्याएं १. 'सुकालश्व सुराजा च वर्ष सन्निहित द्वयम् ।। -महापुराण ४१, १९ । २. "इय बारह भाव मुणिविराय, मगमति वियभिव-भवविरा। रज्जु वि कुणतु चितइ इमाउ, परिहरिवि कुगइकारण पसाउ ।।"

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