Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 338
________________ जैन शासन प्रजातंत्रपर नहीं, आतंकवादपर अधिष्ठित है। रूसियोंको यह नही ज्ञात है कि वाहरकी दुनिया में क्या हो रहा है। वे अनेक प्रकारकी परतवताओंकी सुनहरी सांकलोंसे जकड़े हुए है। जो भी हो, भारतवर्षका कल्याण पश्चिमकी अन्धआराधनामें नहीं है। इसकी आधिक समस्याका सुन्दर सुधार गांधीजीकी विचारपूर्ण योजनाओं के सम्यक विकासमें विद्यमान है । यथार्ष में जीवदया, सत्य, अचौर्य मादि सबृत्तियोंका सम्यक् परिरक्षण करते हुए जो भी देशी विदेशी लोकोपयोगी उपाय चा. योजनाएं का उनका अभिनन्दन करने में कोई बुराई नहीं है। हां, जिस योजना द्वारा हिंसा आदिका पुण्य ज्योति कोण हा, यह कमी भी स्वागत करने योग्य नहीं है। __ आर्थिक समस्याके सुधारके लिए पश्चिमी प्रक्रियाको भयावह बताते हुए पाचा पान्तिसागर महाराजने कहा था, "पूर्वभवमें दया, दान, तपादिके द्वारा इस जन्म में धन वैभव प्राप्त होता है । हिंसा दि पांच पापोंके आचरण से जीप पापी होता है, और यह पापके सदयसे दुःख पाता है। पापी और पुण्यात्माको समान करना अन्याय है। सबको समान बनाने पर व्यसनोंकी वृद्धि होगी। पापी जोदको धन मिलने पर वह पाप कर्मों में अधिक लिप्त होगा।" माचार्य श्रीन यह भी कहा कि "सरजन शासके गरीबोंके उद्धारका उपाय करता है। हृष्ट पुष्ट जीविका विहीन गरीमोंको वह योग्य इन्धों में लगाता है । अतिवृक्ष, अंगहीन, असमर्थ दोनोंका रक्षण करता है।" मारतीय संस्कृति अन्यन्त पुरातन है। अगणित परिवर्तनों और प्रान्तियों के मध्यम भी उसके द्वारा जगतको अभम और आमन्द प्राप्त हुआ है । अतः भारतमें उत्पन्न विषम समस्याओं का उपचार भारतीय सन्तोंके द्वारा चिर परीक्षित करुणामूलक तथा त्याम-रामपित योजनाओंका अंगीकार करना है। जिस शैलीपर गुलाबका पोषण होता है, उस पद्धति द्वारा कमलका विकास नहीं होता, इसी प्रकार भौतिकवादके उपासक पपिचमकी समस्याओं का उपाय आध्यात्मिकताफे भाराधक मारतके लिए अपाय तथा आपत्तिप्रद होगा 1 भारतोद्वारकी अनेक योजमाओंमें जीवघातको भी, पश्चिमकी पद्धतिपर लपयुक्त माना जाने लगा है, यह बात परिणाममें भमंगलको प्रदान करेगी। अहिंसानुप्राणित प्रवृत्तियों के द्वारा ही वास्तविक कल्याण होगा। जो जो सामाजिक, सौकिक, रास्नैतिक आर्थिक समस्याएं मूलतः हिंसामयी है, उनके द्वारा शाश्वप्तिक अभ्युदयको उपलब्धि कभी भी नहीं हो सकती है। जैन तीर्थकरोंने अपनी महान साधनाके द्वारा यह सत्व प्राप्त किया कि आत्माका पोषण वस्तुतः सब ही होगा, जब कि यह अपनी लालसाओं और दासनाओंकी अमर्यादित वृद्धि को रोककर व्यसनाओंपर नियन्त्रण करेगा । भोग और विषयोंको मोहनी धूलिसे अपने ज्ञान चक्षुओंका रक्षण करना चाहिए।

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