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विहरुसम्याएँ और फेर
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इस जोवनसंग्राम में सदा अपराजित जीवन रहे, इसलिए योग्य गृहस्थ उन वीरोंकी कुछ समय तक एक चित्त हो, वंदना तथा गुणानुचितन करता हैं, जिन्होंने भौतिक दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त की है, साथ ही काम, क्रोध, लोभ, मान, मोहादि रिपुओं को भी पराजित किया है। इस आदर्शको आराधनासे आत्मा मुग्ध नहीं बनता है। दान देनेसे सहानुभूति तथा सहयोगका सच्चा भाव राजम रह समाजको मंगलमय बनाता है। तीव्र स्वार्थ भावना पतनको और प्रेरणा करती है । हृदय में वदि प्राणीमात्रके प्रति "समता सर्वभूतेषु" की भावना प्रतिष्ठित हो जाय, तो आन्तरिक साम्यकी अवस्थिति में बलपूर्वक स्थापित किये गये कृत्रिम साम्यवादकी ओर कौन झुकेगा ? आजके युगमे सहयोग, परस्पर सहायता, सहानुभूति, ऐक्य, उदारता, प्रेम, प्रामाणिकता, संतोष, स्पष्टवादिता, तो निर्भीकता, स्वस्त्रीसन्तोष, संत्रम सदृश सद्गुणोंकी यदि अभिवृद्धि हो जाय, faraमें बहुत विषमता तथा विवाद उत्पन्न करनेवाले विवादोंका अवसान हुए बिना न रहे। राज्य शासनकी कोई भी पति हो, उसके प्रवृत्तिका पोषण होता है, तो वह श्रेष्ठ है। शासन पद्धति साध्य नहीं, है । साध्य है शान्ति, समृद्धि तथा मनुष्य जीवनकी सफलता । उन्नति के लिए विविध धर्मग्रन्थ अहिंसा, सत्य, शील आदिका उल्लेख मात्र करते हैं, किन्तु वे यह स्पष्टतया नहीं बताते कि इन सिद्धान्तोंका सम्यक् परिपालन किस प्रकार सम्भव है ?
भीतर यदि पूर्वोक्त
सावन
जैनशासन में इस बातका पूर्णतया स्पष्ट विवेचन किया गया है, कि अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरियह वृत्तिका पोषण करनेकी चर्यां किस प्रकार है और किस प्रकारकी प्रवृत्तिसे इसका विनाश होता है। गृहस्थ अवस्था में कमसे कम कितनी प्रवृति करे और किस क्रमिक विकासपूर्ण पद्धतिसे आगे बड़े ? महान् साधक श्रमणके पदको प्राप्त कर कैसे चर्या करे ? जैन भाषार ग्रन्थों में इस विषयपर विशद विवेचन किया गया है। उदाहरणार्थ अपरिग्रह व्रतको देखिये । साधारण गृहस्थका कर्त्तव्य है कि अपनी आवश्यकतानुसार धनधान्य, वर्तन, वस्त्र, मकानादिको मर्यादा बांधकर शेष पदार्थोके प्रति किसी प्रकारका ममत्व या तृष्णा न करे उसका ममस्य मर्यादित पदार्थों तक हो सीमित हो जाता है। इस व्रतको निर्दोष पालने के लिए पांच अतीचारों दोषों का त्याग आवश्यक है। इस विषयके महत्त्वपूर्ण ग्रंथ रत्नकरंड श्रावकाचार में स्वामी समन्तभद्र कहते हैं
"अतिवाहनातिसंग्रहृविस्मयलोभातिभारवहनानि । परिमितपरिग्रहस्य च विपाः पञ्च कथ्यन्ते ॥ ६२