Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 325
________________ कल्याणपथ ३१७ थे, कि 'आजकी राजनीति संरक्षणात्मक नियमोंने पूर्णतया पृथक् होकर मानवजाति ध्वंसकी धमकी दे रही है। हम कुछ वर्गों या युगों पर्या और बोखा दे सकते हैं, किंतु हम इतिहास के निर्मम निर्णय से नहीं बच सकते हैं। अनेक महान राष्ट्र राज्य तथा साम्राज्य पराजित हो चुके अथवा वे पुरातन विनष्ट वस्तुओंकी श्रेणी मे समाविष्ट हो गये हैं । यदि हम यह आशा करते हैं तथा चाहते हैं कि हमारा विनाश न हो और हम मानव-सभ्यता के समुदायको कुछ समर्पण करें, तो हमें जैन महापुरुषोंसे सहमत होना होगा और अपने अस्तित्व हेतु महिलाको अपना मौलिक सिद्धान्त स्वीकार करना होगा ।" देखा है इस प्रसंग में भारतीयत गणतंत्र शासन के माननीय अध्यक्ष डा० राजेप्रसादजी द्वारा २४ जनवरी सन् १९४९ को दिया गया सन्देश वडा उद्घोषक है कि " जैनधर्म संसारको महिलाकी शिक्षा दी है। किसी दूसरे धर्म अहिंसाकी मर्यादा यहाँ तक नहीं पहुंचाई। आज संसारको अहिमा की आवश्यकता महसूस हो रही है, क्योंकि उसने हिंसाके नग्न-ताण्डव को और आप लोग डर रहे हैं, क्योंकि हिंसा के साधन आज इतने बढ़ते जा जा रहे हैं, कि युद्धमें किसीके जीतने या हारनेकी बात होती, जितनी किसी देश या जाति के सभी लोगोंको केवल निस्सहाय बना देने की ही नहीं, पर जीवनके मामूली सामानसे भी वंचित कर देनेकी होती है ।" इसलिए वे कहते हैं, रहे हैं और इतने उम्र होते इतने महत्वकी नहीं "जिन्होंने अहिसा मर्मको समझा है वे हो इस अंधकारमें कोई रास्ता निकाल सकते हैं" । राजेन्द्रबारे ये शब्द बड़े विचारपूर्ण हैं, "नियोंका मान मनुष्य समाज के प्रति सबसे बड़ा कर्तव्य यह है कि यह इसपर ध्यान के और कोई रास्ता यूँ निकालें।" १. “Politics totally divorced from the laws of survival is threatening man-kind with utter extinction. We may go an bluffing for a few years or decades more, but we cannot escape the relentless verdict of the history. Many great nations, kingdoms and empires have already vanished or have encumbered the gallery of dead antiquities. But if we hope and aspire to continue and to contribute to the stock of human civilization, we must agree with the Jain pioneers and accept non-violence as the basic principle of our existence." "International University of Non-violence, An Appeal" P. 3.

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