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जैनशासन
नहीं करेगा । आत्मगत दोषोंके द्वारा जीव हरे पतन है, कि जहांसे विकासका मार्ग ही गणनातीत कालके लिए रुक जाता है ।
साक्षी सफलता मद मस्त हो आश्रित व्यक्तियों और देशोंको अपने मनके अनुसार नचाता है, उन्हें कष्ट पहुँचाता है। उनका चिरस्थायी नैतिक पत्तन हो, इस उद्देश्यसे वह उन्हें पापपूर्ण व्यसनोंमें फँसाता है और कहता है कि हम क्या करें, इन्होंने स्वयं पापों को आमंत्रित किया है। ऐसे घूतके चरित्रपर सोमदेवसूरि प्रकाश डालते हुए कहते है
"स्वव्यस नतर्पणाय धूतैर्दुरोहितवृत्तयः क्रियन्ते श्रीमन्तः !
-नी० वा० ३८, २०
'भूतं लोग अपनी आपत्ति के निवारणार्थं श्रीमानों को पापमार्ग में आसक्त कराते हैं ।" किसी राष्ट्रको दीन हीन दुःखी बना शोषणनीति द्वारा विषय-विला. सिता में मग्न होने वालोंको यह सूत्र प्रकाश प्रदान करता है, कि दूसरोंको दुःखी करनेसे, शोकाकुल करनेसे तथा उनके प्राणघात आदिसे यह जीव अपने लिए विपत्तिका बीज बोता है"दुःखशोकतापाक्रन्दनवध परिदेव नान्यात्म परोभयस्थानान्यसद्वेद्यस्य "
० सू० ६, ११ "दुष्प्रणीतो हि दण्डः कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वा सर्वविद्वेषं करोति ॥ ६११०४ | 'काम, क्रोध अथवा अज्ञानवश दण्डका अनुचित प्रयोग सर्वत्र विद्वेषके भावको उत्पन्न करता है ।
जहाँ परस्पर सद्भावना, सहानुभूति, सच्चा प्रेमका निर्झर न बहे, वहाँ तो एक प्रकारसे नरकका राज्य समझना चाहिए। समाज या राष्ट्रके भाग्यविधाताका कर्तव्य है कि यह जनताकी अधोमुखी वृत्तियोंपर नियंत्रण रखें और उसमें सद्भावनाओंका प्रकाश फैलाने तथा मेघमाला के समान अमृतवर्षा करके इस भूतलको सर्वप्रकारसे संपन्न और समृद्ध करे। शोषण में प्रवीण वर्गको सोचना चाहिए कि इस अस्थायी मनुष्य जोवनमें अधिक धनकी तृष्णा द्वारा हमारा कल्याण नहीं है, कारण मरने के बाद कुछ भी साथ नहीं जाता। अतः अपने आश्रितजनों को कमसे कम जीवनकी आवश्यक सामग्री अवश्य प्राप्त कराना चाहिए। सच्चा आनन्द केवल अपना पेट भरने में नहीं है, बल्कि अपने आश्रित सभी लोग सुखी हों, और उन्हें कोई कष्ट नहीं है, ऐसी स्थिति उत्पन्न करनेमें है । अनशास्त्रकारोंने कहा है, जो गृहस्थ दान नहीं देता है, उसका घर श्मशान तुल्य है | यदि शक्ति त्याग (दान) का तत्त्व धनिकों के अन्तःकरणमें प्रतिष्ठित हो जाय, तो अर्थदान् और अर्थविहीनोंका संघर्ष दूर होकर मधुर सम्बन्धोंकी स्थापना हो सकती है।