Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 318
________________ ३१० जैनवासन नहीं करना चाहिए तो कल्याणका मार्ग प्रारंभ हो जायगा । ज्ञानवान् मानवका कर्तव्य है कि वह अपने जीवन की चिन्तनाके साथ अपने असमर्थ अथवा अज्ञानी बन्धुओंको बिना किसी भेद-भावके समुन्नत करनेका प्रयत्न करे । चालाकी, छल और प्रपंच करनेवाला स्वयं अपनी आत्माको धोखा देता है । अन्य धर्मगुरुओं के समान जनशासन इसना ही उपदेश देकर कुतकृत्य नहीं बनता है कि 'तुम्हें दूसरोंका उपकार करना चाहिए । बुरे कामका फल अच्छा नहीं होगा। जैनधर्म विज्ञान (Science) है, तब उसमें प्रत्येक बातका स्पष्ट तथा सुव्यवस्थित वर्णन जब है । उममें यह भी बताया है, कौनसे कार्य बुरे है, उनसे बचने का क्या उपाय है आदि । सत्य, शील, अस्तेयता, कल्प परिग्रह प्रेम । विश्व शांगि दोलोना लिन काल न लेम ।। आज जो पश्चिम में घनकी पूजा (Mammon-worship ) हो रही है, उसके स्थानमें वहां करुणा, सत्य, परिमित परिग्रहवृत्ति, अचौर्य, ब्रह्मचर्यकी मारा. घना होनी चाहिए। विद्याधन जैसे देनेसे बढ़ता है, इसे लेनेवाला और देनेवाला आनन्दका अनुभव करता है, इसी प्रकार करुणा और प्रेमका प्रसाद है। करुणाकी छायामें सब जीव मानन्दित होते हैं । दूसरे प्राणीको मारकर मांस खाना, शिकार, खेलना आदि करुणाके विघातक हैं। मांसाहार तो महापाप है। मांसाहारीकी करुणा या अहिंसा ऐसी ही मनोरंजक है, जैसे अन्धकारसे उज्ज्वल प्रकाश की प्रादुभूति होना । जब तक बड़े राष्ट्र या उनके भाग्यविधाता मांस-भक्षण, शिकार मद्यपान, व्यभिचार, आदि विकृतियोंसे अपनो और अपने देशकी रक्षा नहीं करते, तब तक उज्ज्वल भविष्यको कल्पना करना कठिन है । हिंसादि पापोंमें निमग्न व्यक्ति दूसरोंके दुःखोंके निवारणको सच्ची बात नहीं सोच पाता।' असात्त्विक आहारपान से पशुप्ताका विकास होता है सुखका सिन्धु कहाँ ही दिखाई पड़ता है, जहां करुणाकी मन्दाकिनी बहा करती है। कोई व्यक्ति तर्क कर सकता है कि आजके युग में उपरोक्त नैतिकताके विकासको चर्चा अर्थ है, कारण उसका पालन होना असम्भव है । ऐसी बासके समापानमें हम यह बताना चाहतं है, कि यदि कुछ समर्थ व्यक्ति अपने अन्स:कर पामें पवित्र भावोंके प्रसारकी गहरी प्रेरणा प्राप्त कर लें, तो असम्भव भी सम्भव हो सकता है। अकेले गान्धीजीने अपनी अन्तरात्माकी आवाजके अनुसार देशमें अहिंसात्मक उपायसे राजनैतिक जागरणका कार्य जठाया था, आज स्वतंत्र १. प्रदीपो भक्ष्यते ध्वान्तं फज्जलं च प्रसूपते । या भक्ष्यते मन्नं तादृशी आयते मतिः ।।

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