________________
३११
विश्वसमस्याएँ और जैनधर्म भारतवर्ष तथा विश्ष भी यह अनुभव करता है, कि उस पक्सिने देशमें कितनी शक्ति और चेतना उत्पन्न की । आवश्यकता है जीवन उत्सर्ग करनेवाले सम्चे, सहृदय, विचारशील सत्पुरुषों की । पवित्र जीवन के प्रभावसे पशु-जगत्में भी नसगिक क्रूरता आदि नहीं रहने पाती, तब तो यहाँ मनुष्योंके उद्धारको बात है, जो असंभव नहीं कहीं जा सकती 1
आज ओ दुनियामें रंगभेद, राष्ट्रभेद आदिकृत विषमताओंका उदय है, वह अल्पकालमें दूर हो सकता है, यदि समर्थ मानवसंसारमें ऋषिवर उमास्वामीकी इस शिक्षाका प्रसार हो सके। पूंजीवादको समस्या भी सुला सकती है, यदि सम्पत्तिशालियोंके हृदयमं यह बात जम जाय कि---"पहारम्भपरिपहरवं नारकायायुष:"-'बहुत आरम्भ और परिग्रहके कारण नरकका जीवन मिलता है।' इससे अर्थको ही भगवान मान भजन करनेवालों को पना भविष्य जान कर जीवन-परिवर्तन की बाल हृदय में उदिप्त होगी । “अस्पारस्परिपहत्वं मानुषस्य" --'घोड़ा प्रारम्भ और घोड़ा परिग्रह मनुष्यायुका कारण है।' छल प्रपत्रके जगत में निरन्तर विचरण करनेवाले राजनीतियों को आचार्य बताते हैं-"माया तैर्यायोमास्य'-'मायाघारके द्वारा पशुका जीवन प्राप्त होता है ।' कूटनीतिज्ञ सपने षडयन्त्रों को बहुत छिपाया करते है, इस आदत के फलस्वरूप पक्ष-जीवन मिलता है, जहाँ जीव अपने दुःख-सुखके भावोंको वाणी के द्वारा व्यक्त करनेमें असमर्थ होता है । इतनी अधिक छिपानेकी शक्ति बढ़ती है।
पविनाचरण, जितेन्द्रियता, संयम (Self Control) के द्वारा सुरस्वकी उपलब्धि होती है। आचार्य उमास्वामीके कथनसे यह स्पष्ट होता है, कि आज पाप-पंको निमम्न प्राणी अपनी अमर आत्माको नीच पर्याय में ले जाता है, जहां दुःख ही दुःख है। आज जो वर्गकी ष्ठता, (Racc-Superiority) अथवा रंगभेद (Colour Distinction) की ओटमें अभिमान और घृणाके बीज दिखते है, उसका फल सूत्रकार बताते हैं-- 'परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचंर्गोत्रस्य ॥"
-त. सू० ६.२५ दसरेकी निन्दा, अपनी प्रशंसा करना, दुसरेके विद्यमान गुणोंको डांकना और अपने झूठे गुणोंका प्रकट करना इन कार्योके द्वारा यह जीव निन्दनीय तथा तिरस्कारपूर्ण अवस्थाको प्राप्त करता है।
आज जो अनंक राष्ट्रोंमें घृणा, जातिमत अहंकार आदि विकार समा गये है वे उन राष्ट्रोंका इतना भीषण विनाश करेंगे, जितना लाखों अशुन मका प्रयोग भी १. 'आरंभ' हिंसन कार्यको कहते है । 'परिग्रह' ममत्वभावको कहते हैं ।