Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 311
________________ विश्वसमस्याएं और जेनधर्म विश्वसमस्याएँ और जैनधर्म ३०३ आज यन्त्रवाद (Industrial Revolution) के फलस्वरूप विश्व में अनेक अघटित घटनाओं और विचित्र परिस्थितियों का उदय हुआ है। उसके कारण उत्पन्न हुई विपत्तियों व्यथित अन्तःकरण विश्वशान्ति तथा अभिवृद्धि निमित्त धर्मका द्वार खटखटाता है और कहता है कि हमें उच्च तत्त्वज्ञान और गंभीर अनुभवपूर्ण दार्शनिक चिन्तनाओंवाले धर्मकी अभी उतनी जरूरत नहीं है, जितनी उस विद्याकी, जो कलह, विद्वेष, अशान्ति, उत्पीड़न आदि विपत्तियोंसे बचाकर कल्याणका मार्ग बतावे । जो धर्म मर्दुमशुमारीको विशिष्ट वृद्धिके आधारवर अपनी महत्ता और प्रचारको गौरवका कारण बताते हैं, उनके आराधकोंकी बहुसंख्या होते हुए भी अशान्तिका दोरदौरा देख विचारक व्यक्ति उन धर्मोसे प्रकाश पाने की कामना करता है, जिसकी आधारशिला प्रेम और शान्ति रही है, और जिसकी वृद्धिके युग में दुनियाका चरित्र सुवर्णाक्षरोंमें दिखने लायक रहा है। ऐसे जिज्ञासु विश्वकी वर्तमान समस्याओं के बारेमें जैनशासनसे प्रकाश प्राप्त करना चाहते हैं । अतः आवश्यक है कि इस सम्बन्धमें जैन तीर्थंकरोंका उज्ज्वल अनुभव तथा शिक्षण प्रकाशमें लाया जाय । धर्म सर्वांगीण अभ्युदय तथा शान्तिका विश्वास प्रदान करता है, अतः मानना होना, कि प्रस्तुत समस्याओं की गुत्थी सुलझानेकी सामर्थ्य धर्म में अवश्य विद्यमान मौर्य जैन- नरेशों सदृश चन्द्रगुप्त हूँ | इतिहास इस बातको प्रमाणित करता है, कि के शासन में प्रजाका जीवन पवित्र था। वह पापखे अलिप्तप्राय रहती थी। वह समृद्धिकै शिखरपर समासीन थी। वर्तमान युगमें भी इस वैज्ञानिक धर्मके प्रकाशमें जो लोग अपनी जीवनचर्या व्यतीत करते हैं, वे अन्य समाजोंको अपेक्षा अधिक समृद्ध, सुखी तथा समुन्नत हैं। यह बात भारत सरकारका रेकार्ड बतायगा, जिसके आधारपर एक उत्तरदायी सरकारी कर्मचारीने कहा था कि - "फौजदारी का अपराध करनेवालोंमें अनियोंको संख्या प्रायः शूश्य है !" आज लोगों तथा राष्ट्रोंका शुकाव स्वार्थपोषण की ओर एकान्ततया हो गया है । 'समर्थको ही जीनेका अधिकार है, दुर्बलोंको मृत्युकी गोदमें सदा के लिए सो जाना चाहियें, यह है इस युगकी आवाज । इसे ध्यान में रखते हुए शक्ति तथा प्रभाव सम्पादन के लिए उचित-अनुचित कर्तव्य - अकर्तव्यका तनिक भी विवेक बिना किए बल या छलके द्वारा राष्ट्र कथित उन्नतिकी दौड़के लिए तैयारी करते " है। हम हो सबसे आगे रहें, दूसरे चाहे जहाँ जायें, ईर्ष्यापूर्ण दृष्टि ) के कारण उच्च शिक्षान्तोंकी वे उसी इस प्रतिस्पर्धा (नहीं नहीं, प्रकार घोषणा करते हैं,

Loading...

Page Navigation
1 ... 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339