Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 313
________________ विश्वसमस्याएं और जैनधर्म ३०५ तत्त्वोंका सनिक भी आदर करनेको तयार नहीं होते। जहाँ तक विवाद (lebatre) का प्रसंग है, वे मानवता, करुणा, विश्वप्रेमकी ऐसी मोहक चर्चा करेंगे, और अपने कामों में इतनी नैतिकता दिखावेंगे, कि नीति-विज्ञानके आचार्य भी फित होंगे, किन्तु अवसर पड़ने पर उनका आचरण उनके असली रूपको प्रकट कर देता है। रामायण में वर्णित बकराजने पम्पा सरोवर के समीप रामचन्द्रजी सदृश महापुरुषको अपने चरित्रके बारे मे भ्रमाविष्ट कर दिया था, और वे उसे परम धार्मिक सोचने लगे थे। पोछे उनका भ्रम दूर हुआ था, इसी प्रकार आधिभौतिक विज्ञानके द्वारा जगतकी विचित्र अवस्था हुई है । महाकवि कवरने बहुत क कहा है ___ "इल्मी तरक्कियोंसे जबां तो चमक गई। लेकिन मजबनके कोको गो ..." प्रख्यात वैज्ञानिक प्रो० एम० पोलाइमने बृटिश एसोसिएशन के समक्ष दिये गये अपने एक भाषणमें यह बात स्वीकार की है, कि यूरोपमें 'उन लोगोंका नेतृत्व है, जो हमें यह बात सिखलाते हैं, कि केवल भौतिक पदार्थ ही सत्य है।' इन भौतिकवादियों के द्वारा संचालित वार्मिक संस्थाओं में भी प्रायः कृत्रिमता, स्वार्थपोषण, स्ववर्गका श्रेष्ठत्व-स्थापन, कटप्रवृत्ति आदि विकृतियों का विशेष सद्भाव पाया जाता है । वे प्रायः अपने सदृश कृत्रिम तथा फूटवृत्तिके धारकोंको उपचवाफे आसनपर आसीन करते है, किन्तु जिनसे वयार्थ प्रकाश प्राप्त होता है, उनको ये अन्धकारमें रखते है। __ पन्त्रवादके विशेष प्रचार के कारण पहलेको अपेक्षा वस्तुओंकी उत्पत्ति अधिक विपुल परिमाणमें हो गई है, किन्तु फिर भी इस समुचिके मध्य गरीबीका कष्ट (Poverty and prosperity) बढ़ता ही जाता है। आजकी राजनीतिकी पास ही ऐसी विचित्र है, कि उसके आगे अपने स्वार्थ तथा मान (Prestige) पोषणके सिवाय अन्य नैतिक तत्त्वोंका कोई स्थान नहीं है । हजरत मसीहने जो यह वताया है कि "This world is a bridge, pass thou ovcr it, but build not upon it |' 'यह जगत् एक पुलके सदृश है। उसपर होकर तुम चले जाओ, इसपर मकान मत बांछो'-उसे विस्मृत करने में ही आजके सम्पन्न देश अपनेको कृतार्थ मान रहे हैं । धनसंचय करना ही इनका एकमात्र कार्य है । धन के द्वारा शान्ति प्राप्त करना असम्भव है । महर्षि गुलभत कहते है "रे धनेन्धनसंभार प्रक्षिप्याशाहताशने । ज्वलन्तं मन्यते भ्रान्तः शान्तं संधूक्षणे क्षणे ॥" आत्मानुशासम ८५ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339