________________
पुण्यानुबन्धो वाङ्मय करह चौकड़ा चातुर चौकस, द्यो चाबुक दो चारा 1 इस घोरेको 'विनय' सिखावो, ज्यों पावो भव पारा ।। ५ ॥"
कषिदर बनारसीदास जीका यह पद कितना अनमोल है
"रे मन ! कर सदा सन्तोष,
जातें मिटत सब दुख-दोष । रे मनः ॥ १॥ बढ़त परिग्रह मोह बाढ़त, अधिक तृषना होति । बहुत इंधन जरत जैसें अनि ऊंची जोति ॥ रे मन० 11 २ ।।
लोभ लालच मूल जनसो, कहत कंचन दान । फिरत आरत नहिं विचारत, धरम पनकी हान ।। रे मन० । ३ । नारकिनके पाद सेवत सकुच मानत संक । ज्ञानकरि बूझे 'बनारसि' को नृपत को रंग ।। रे मन० ॥ ४॥
वे इस पदमें कितमे पवित्र भावोंको प्रगट करते हैं
"दुविधा कब जेहै या मन की । दु० ॥ कब निजनाथ निरंजन सुमिरौं, तज सेवा जन जन की । दु० ॥१५॥ कब रुचि सौं पीवे इंगनातक, बूंद अखय पद धन की। कम शुभ ध्यान धरौं समता गहि, करूं न ममता तनकी ॥ २ ॥ कब घट अन्सर रहै निरन्तर, दिकृप्ता सुगुरु वचन की। कब सुख लहीं भेद परमारथ, मिट धारना धनकी ।। ३ ।। कब घर छडि होहु एकाकी, लिये लालसा वनको। ऐसी दशा होय कब मेरी, ही बलि बलि वा छनको ।। ४ ।।"
कवि भागबजीका यह पद कितना अनमोल है
"जीव ! तू तो भ्रमत सदीव अकेला। कोई संग न साथी तेरा टेक ॥ अपना सुख दुःख आपहि भुगतै होत कुटुम्ब न भेला । स्वार्थ भये सब बिछुरिजात है, बिघट जात ज्यों मेला ॥ १ ॥