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पुण्यानुबन्धी वाङ्मय
२९५ इंद्रने भगवान् वृषभदेवके मुनि दीक्षा लेने पर जो चमत्कारजनक स्तुति की थी, उसे व्याजस्तुति अलंकारसे सुसज्जित कर आचार्य जिनसेन कितने मनोहर शब्दों द्वारा व्यक्त करते हैं
प्रभो, आपकी विरायता समझमें नहीं आती; राज्यथी से तो आप विरक्त हैं, तपोलक्ष्मीमें आसक्त है तथा मुक्ति रमाके प्रति आप उत्कण्ठित है ।
___ आपमें समानदीपना मी कसे माना जाय; आपने हेय और उपादेयका परिज्ञान कर संपूर्ण हेय पदार्थों को छोड़ दिया और उपादेय को ग्रहण करनेकी आकांक्षा रखते है ।
आपमें त्याग भाव भी कैसे माना जाय, पराधीन इंद्रियजनित सुखका आपने परित्याग किया और स्वाधीन सुस्त्रकी इच्छा करते है, इससे तो यही ज्ञात होता है कि आप थोड़े आनन्दको छोड़कर महान सुखकी कामना करते हैं। पूज्यपाद महर्षिकी वाणी महत्वपूर्ण है।
अनित्यानि शरीराणि विभबो नव शाश्वतः ।
सन्निहितं य सदामृत्युः कर्तव्यो धर्म संग्रहः ।। शरीर अनित्य है, वैभव शाश्वत नहीं है । मृत्यु समीपमें है । अतः दयाधर्मका संग्रह करना श्रेयस्कर है। __भागचंद, दौलतराम, भूघरदास, धानतराय आदि कवियोंने अपने भक्ति तथा रसपूर्ण मजनोंके द्वारा ऐसी सुन्दर सामग्री दो है, कि एक ही पद्मके पढ़नेसे साधकको आत्मा आनंदित हो उठती है। इस अवसरपर हमें भूपरवाप्तजीका भजन स्मरण आता है, जिसमें कविने जीवनको चरखेसे सुलमाकी है। कितना मार्मिक मषन है यह
"चरखा चलता नाही, चरखा हुआ पूराना ।।टेक।। पग-खूटे द्वय हालन लागे, उर मदरा खखराना ।। छीदो हुई पांखड़ी पसली, फिर नहीं मनमाना ।।१॥
१. "राज्यनियां विरक्तोऽमि संरक्तोऽसि तपःश्रियाम् ।
मुक्चिश्चियां च खोत्कण्ठो गतैय ते विरागता 1। २३७ ।। ज्ञात्वा हेयमुपेयं च हित्वा हेयमिवाखिलम् । उपादेयमुपादिरसोः कथं ते समदर्शिता ।। २३८ ।। पराधीनं सुखं हित्वा सुखं स्वाघोनमीप्सतः । स्यक्त्वाल्पा विपुलां चति वाच्छतो विरतिः म्य ते ॥२३९॥"
-महापुराण पर्व १७ ।