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जैनशासन उस पुण्य, जिसके वलपर भाग्यका सितारा चमकता है, के अर्जनका उपाय महात्माओंने जिनन्द्र पूजा, सत्पात्रदान, अष्टमी, चतुर्दशी रूप पर्वकालमें उपवास तथा शीलका धारण करना कहा है
"दानं पूजां च शीलं च दिने पर्वण्युपोषितम् ।। धर्मश्चतुर्विधः सोऽयमाम्नातो गृहमेधिनाम् ।।"-महापु० १०४॥४१॥
पुण्य प्रवृत्तियोंको प्रबुद्ध करनेसे संसारका अम्युदय ही उपलब्ध होगा, अमर जीवन और अविनाशी आनन्दकी उपलधि तो विभाव का परित्याग कर स्वभावको और प्रवृत्ति करनेसे होगी । तस्वशानसरंगिणोका यह कथन वस्तुतः यथार्थ है
"दुष्कराण्यपि कार्याणि हा भाग्यशभानि च ।
बहूनि विहितानीह नंब शुद्धात्मचिन्तनम् ।।" मैने अनेक दुःखसाध्य शुभ तथा अशुभ कार्य किए; किन्तु खेद है अपनी दिशुद्ध आत्माका कभी चिन्तन न किया । यदि यह आरमा पगवलम्बनको छोड़कर अपनी आरम-ज्योतिवी ओर दष्टि कर ले, तो यह अनाथ न रह त्रिलोकीनाथ बन जाय । यह उक्ति कितनी सत्य है
"तीन लोकका नाथ तू, क्यों बन रहा अनाथ ? ।
रत्नत्य निधि साथ ले, क्यों न होय जगनाथ ? ॥ विवंकी मानवकी प्रवृत्तियोंका चरम लक्ष्य अमृतत्वकी उपलब्धि है; जैन महापुरुषोंने उसको लक्ष्य करके ही अपनी रचनाओंका निर्माण किया है। कारण उस लक्ष्य के सिवाय अन्म तुच्छ ध्येयोंकी पूति द्वारा क्या परम साध्य होगा? इसीसे उपनिषदकार ने कहा है
"येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्याम् ?' एक वीतराग ऋषिक शब्दोंमें सच्चा विद्वान् तो यह है, जो अपने इसी शरीरमें परम आनन्दसंपन्न तथा राग-द्वेषरहित अहंन्तको जानता है। महापुरुष परमात्मपदको अपनेसे पृथक् अनुभव नहीं करते। हमने चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराजसे यह वास अनेक बार सुनी थी कि इमारा भगवान् बाहर नहीं है, हृदयक्र भीतर बैठा है। जिसमें ऐसी आत्म दर्शनको सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है, वही वस्तुतः ज्ञानवान् कहे जानका पात्र है। वही सच्चा साधक तथा मुमुक्ष है । उसे साध्यको प्राप्त करते अधिक काल नही लगता । १. जिसके द्वारा मुझे अमृतत्य नहीं मिले, उससे मुझे क्या करना है ? २. ''परमाल्लादसम्पन्नं रागद्वेषविर्जितम् ।
बर्हन्तं देहमध्ये तु यो जानाति स पंडितः ।"