Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 305
________________ पुण्यानुषन्धी बाङ्मय २९७ "किमिह परम सौख्यं निस्पृहत्वं यदेतत् । किमथ परमदुःखं सस्पृहत्व यदेतत् ।।१४।।" भर्वत्र यही कहा जाता है कि चरित्रका सुधार करना चाहिये । उस चरित्रका स्वरूप जानना आवश्यक है। अमितगति स्वामी कहते है कषाय-क्रोधादि विकारोंपर विजय प्राप्त करना ही चरित्र है । कोष, मान, माया, लोभ, भय, घृणा, काम, तृष्णा मादिक अधीन रहते डाए चरित्रका दर्शन नहीं होता । "कषायमुक्तं कथितं चरित्रं कषायवृद्धावपघातमेति । यदा कषायः शममेति पुंसस्तदा चरित्रं पुनरेति पूतम् ॥२३३॥ कविका कथन है कि सम्ससमागमके द्वारा तमोभाव नष्ट होता है, रजोभाव दूर होता है, सात्त्विक वृत्तिका आविष्कार होता है, विवेक उत्पन्न होता है, सुख मिलता है, न्याय वृत्ति उत्पन्न होती है, धर्ममें चित्त लगता है तथा पापबुद्धि दूर होती है अतः साधुजनकी संगति द्वारा क्या नहीं मिल सकता है ? "हति ध्वान्तं हरयति रजः सत्त्वमाविष्करोति प्रज्ञा सूते वितरति सुखं न्यायवृत्ति तनोति । धर्मे बुद्धि रचयतितरां पापबुद्धिः धुनीते पुसा नो वा किमिह कुरुते संगतिः सज्जनानाम् ।।४६८॥" संसारमै पुण्यका ही ठाठ दिखता है, जिसके पास पुण्य की संपत्ति है, यह सर्वत्र जयशील होता है; किन्तु बिना पुष्य के महनीय कुलादिमें जन्म लेते हुए भी विपत्तिपूर्ण जीवन बिताना पड़ता है। इसीगे कहा है, कि शूर तथा विद्वान् होते हुए भी पाडोको वनमें भटकना पड़ा, अतः शौर्य और पांरित्यके स्थानमें भाग्य बमा चाहिए __ "भाग्यवन्तं प्रसूयेथाः मा शूरान्मा च पण्डितान् । शूराश्च कृतविद्याएच वने सोदन्ति पाण्डवाः ॥" इस विषयमें सुभाषितरत्नसंदोहमें कहा है "पुरुषस्प माग्यसमपे पतितो वज़ोपि जायते कुसुमम् । कुसुममपि भाग्यविरहे वज्रादपि निष्ठुरं भवति ।। बान्धवमध्येऽपि जनो दुःखानि समेति पापपङ्कन । पुण्येन वैरिसदनं यातोऽपि न मुच्यते सौख्यम् ।।" पुरुषके माग्य जगनेपर वज्रपात भी पुण्य सदृश हो जाता है, किन्तु अभाग्य होनेपर कुसुम भी कठोर हो जाता है । पापोदयसे अपने बंधुओंके मध्यमें रहता हा भी यह दुःखी होता है तथा पुण्योदयसे शत्रु के परमें भी सुखको शप्त करता है।

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