________________
२९६
जैनशासन
ममता त्याग करनेसे रागद्व ेष आदि दोष दूर होते हैं अतः समता तस्वका प्रेमी ममताका स्याग करें, तो कल्याण हो। वे कहते हैं
"रागद्वेषादयो दोषा नश्यन्ति निर्ममत्वतः । साम्यार्थी सततं तस्मात् निमत्वं विचिन्तयेत् ॥१० २०|"
जिस प्रकार मेघमंडल पर सूर्यकी किरणें पड़कर अपनी मनोरम छटासे जगत्को प्रमुदित करती हैं, उसी प्रकार सत्कविकी कल्पनाकी किरणों द्वारा पदार्थका स्वरूप बड़ा आकर्षक, आनन्दप्रद तथा भाव प्रदर्शक बन जाता है । राजा भरत कुमार भगवान्मनाथके चरणोंका अनुसरण कर दिगम्बरकी दीक्षा धारण कर ली। इस घटनाको अपनी महाकविसुलभ कल्पना से सजाते हुए जिनसेन स्वामीके शिष्य गुणभद्राचार्य कहते हैंचक्रवर्ती सम्राट् भरतेश्वरने देखा कि आदि भगवान्का शासन विश्वव्यापी बन गया है, उनके महान भारको वारण करनेके योग्य यह जयकुमार अच्छा पात्र है, यह सोचकर भरतराजने जयकुमारको प्रभुचरणों में समर्पित किया। कैसी मुखद सुन्दर तथा सुश्राव्य कल्पना है यह । महाकविकी वाणीका विज्ञजन रसास्वाद करें---
"एष पात्रविशेषस्ते संबोढुं शासनं महत् । इति विश्वमहोशेन देवदेवस्य सोऽर्पितः ॥ २८/४७॥”
साधुत्व स्वीकार करने के पूर्व प्रतापो सेनापति जयकुमार में महाकवि जिनसेन को एक बड़ा दोष दिखता था, कि उसके श्री कोर्ति, वीरलक्ष्मी तथा सरस्वती ये अश्यन्त प्रिय चार स्त्रियों है । कीति तो ऐसी विचित्र है, कि वह गृहलक्ष्मी न बनकर त्रिभुवनमें विचरण करती है, लक्ष्मी अत्यन्त वृद्धा है । (कारण उसके वैभवका पार नहीं है) । सरस्वती भी अधिक जीणं हे - (शास्त्राभ्यासी होने के कारण उसका श्रुताभ्यास बहुत बढ़ा चढ़ा हूं) वीरश्री शत्रुओंका क्षय होने के कारण शान्त सबुवा ( उसमे चैतन्यपता नहीं मालूम पड़ठा) दिखती है। यह ब्याज स्तुति है । जिमसेम स्वामीके शब्द सुनिए ---
"अयमेकोऽस्ति दोषोऽस्य चतस्रः सन्ति योषितः । श्रीः कीर्तिर्वीरलक्ष्मीश्च वाग्देवी चातिवल्लभा ॥ ३१६॥ कीतिबंहिश्वरा लक्ष्मीरतिबुद्धा
सरस्वती
जीर्णेतरापि शान्तेव लक्ष्यते क्षतविद्विषः ||" - महापु० ४३३२०१
स्पृहा-आकांक्षा ही सच्चे सुखकी उपलब्धिमें बाधक है अतः निस्पृहत्त्रमें हो कया है इस faeusो सुभाषितरत्न संदोह में माचार्य अमितगति इन सुन्दर शब्दोंमें समझाते है