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जेनशासन ____ अरे भाई ! यदि एक दिन भी भोजन नहीं प्राप्त होता है, अथवा रात्रिको नींद नहीं आती है तो यह शरीर अग्नि समीप में कमलपत्रके समान मुरचा जाता है; अस्त्र, रोग, जल आदिफे द्वारा जो सहसा विनाशको प्राप्त होता है, ऐसे शरीर में स्थिरताकी बुद्धि कैसी ? इसके नाश होने पर भला क्या आश्चर्यकी बात है ? __भगवान् पार्श्वनाथके पिता महाराज विश्वसेनने उनसे गृहस्थाश्रमा प्रवेश करने को कहा, उस समय उनके चित्त में सच्चे स्वात्रीन बनने की पिपासा प्रबल हो उठी और उन्होंने अपनेको इन्द्रियों तथा विषयोंका दास बनाना अपनी दुर्बलता समझी, अतः उन्होंने निर्माण के लिये कारण रूप जिनेन्द्रमा धारण को। वादिराज सूरिने पावनाथचरिथमें भगवान के मनोभावों को इस प्रकार चित्रित किया है--
"दोषदृष्ट्या सदियो विषयरतग ?
प्रक्षालनाद्धि पतस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ॥ १३-.११ ।।" यदि सदोग दृष्टिवश विषय त्यागने योग्य है. तब उनको ग्रहण करने में क्या प्रयोजन है ? कीचड़ में अपने अंगको डालकर धोने की अपेक्षा उस पंकको न छूना हो मुन्दर है।
जिस विनयकी ओर आज लोगोंका उचित ध्यान नहीं है, उस विनयकी गुरुताको आचार्य श्री इन शब्दों द्वारा प्रकाशित करते है
"विणएण विष्पहीणस्स, हदि सिक्ला निरस्थिया सव्वा । विशओ सिक्खाफलं, विणयफलं सब्बकल्लाणं ।"
-मुलाचार पृ०, ३०४ । -विनय विहीन व्यक्ति की संपूर्ण शिक्षा निरर्थक है । शिक्षाका फल विनय है और बिनयका फल सर्वकल्याण है।
शील पारगकी ओर उत्साहित करते हुए वे कहते है__ "सीलेणवि मरिदवं णिस्सीलेणवि अवस्स मरिष्वं ।
जइ दोहिंवि मरियध्वं वर हु सोलत्तणेण मरियन्वं ।।५।९५॥" शीलका पालन करते हुए मृत्यू होती है. और शील शून्य होते हुए भी अवश्य मरना पड़ता है । जब दोनों अवस्थाओं में मृत्यु अवश्यंभाविनी है, तब शोल सहित मृत्यु अच्छी है।
निवृत्तिके समुन्नत शैलपर पहुँच नेमें असमर्थ व्यक्ति किस प्रकार प्रवृत्ति करें, जिससे वह पापपंकसे लिप्त नहीं होता है, इसपर जैन गुरु इन शब्दोंमे प्रकाश डालते हैं
"जदे परे जदं चिट्ठ जनमासे जबसये । जदं भुजेज्ज भासेज, एवं पावं ण वज्झइ ।।"