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पुण्यानुबन्धी वामय
' कलेवरमिदं त्याज्यम् अर्जनीयं यशोधनम् | जयश्रीविजये लभ्या नाल्पोदर्को रणोत्सव: 1 "
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यह शरीर तो त्या है। यदि मृत्यु होती है तो कोई भयकी बात नहीं है, धन प्राप्ति तो होगी । यदि विजय हुई तो जमश्री प्राप्त होगी। इस प्रकार यह रणोत्सव महान् परिणामवाला हूँ |
स्वाधीनता के विषय में वासिंहसूचिका कथन विरस्मरणीय है
"जीवितात्तु पराधीनात्, जोवानां मरणं वरम् ।
—क्षत्रचूडामणि १, ४० । पांडित्यप्रदर्शन के क्षेत्र में भी जैन ग्रंथकारोंने अपूर्व कार्य किया है। महाकवि जयका राघवपांडवीय - द्विसंधान अनुपम पाण्डित्यपूर्ण कृति है । प्रत्येक rathi fear बलपर रामायण और महाभारतकी कथा वर्णितकी गई है । रचना अत्यन्त मधुर सरस तथा कवित्वपूर्ण है। सप्तसंधान काव्य में भगवान् ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ पार्श्वनाथ, महावीर, राम तथा कृष्ण इन ७ महापुरुषोंका चरित्र निबद्ध है। प्रत्येक लोकके सात-सात अर्थ पाये जाते हैं । इसी प्रकार २४ तीर्थकरों के चरित्रयुक्त चतुविंशतिसंधान नामका काव्य है । स्वामी समग्र स्तोत्रकाव्य जिनशतक एकाक्षरी द्वयक्षरी आदि चित्रालंकारभूषित अपूर्व रचना है जो रचनाकारके भाषावर अप्रतिम अधिकारको सूचित करता है | एक जैन आचार्यने चित्रालंकारका उदाहरण देते हुए एक पद्य बनाया है. जिसका मर्म बड़े-बड़े पांतिके अभिमानी अबतक न जान सके वह पद्य यह है
"का व गो घ ङ चच्छो जो झ टठडढण I
था द धन्य प फ ब भ मा या राला व श ष सः ॥"
बौद्ध धर्मका मूल सिद्धान्त 'सर्व क्षणिकम्' है, जैन धर्मने पर्याय दृष्टिसे पदार्थको क्षणिक माना है; इस क्षणिकताका आचार्य पद्मनंजिने शरीरको लक्ष्यकर कितना वास्तविक तथा सजीव वर्णन किया है-
" यद्येकत्र दिने न भुक्तिरथवा निद्रा न रात्री भवेत् विद्वात्यम्बु पत्रवद्द नतोऽभ्याशस्थितात् यद्भुवम् । अस्त्रव्याधिजलावितोऽपि सहसा यच्च क्षयं गच्छति भ्रातः कात्र शरीर के स्थितिमतिर्नाशेऽस्य को विस्मयः ।। "
१. "लोकं पराधीनं जीवितं विनिम्बितम् । निजबलवि भवसमार्जित मृगेन्द्रपदसंभावितस्य मृगेन्द्रस्येव स्वतंत्रजीवनमविनिन्दितमभिवन्दितमनवद्य पतिधमिति ॥ "जी० ० का ० ।