Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 299
________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय प्रमादिका लाभ होनेपर अपने स्वास्थ्य आदिकी उपेक्षा करते हुए लोग आनन्दित होते हैं। कुशलक्षेम समझते हैं । जीवन्धरचम्पूमें हरिचना कवि कहते है- असि कृषि शिल्प वाणिज्य आदि षट् कर्मोके द्वारा समची कुशलता-क्षेभ वृत्ति नहीं मिलती है। उसके द्वारा मनेक प्रकारकी लालसा-लता विस्तृत होती है। सम्ची फुशलता निर्वाणमें है । आत्मस्वरूप अमाप्त भानन्दमें कुशलता है। वह मारमाके ही द्वारा साध्य है। कितना भावपूर्ण पद्य है."कुशलं न हि कर्मषट्क जातं विविधाशा-व्रतति-प्ररोहकन्दम् । अपवगंजमात्मसाध्यमाहुः कुशलं सौख्यमनन्तमात्मरूपम् ।।" सोगले मरि नवापेके कारण धरम हा केशों के विषयमें बताते हैं—'ये केश तुम्हें तपश्चर्याका पाठ पढ़ाने आये हैं । ये मुक्तिलक्ष्मीके दर्शनके झरोखे के मार्गतुल्य है । चतुर्थ पुरषार्ष (मोक्ष) रूपी वृक्ष अंकुर सान है । परमकल्याणरूप निर्वाण के आनन्दरसके आगमनद्योतक अग्रदूत है।' आचार्यने इन केशोंमें कितनी विलक्षण तथा पवित्र कल्पना की है और शिक्षा भी दी है"मुक्तिश्रियः प्रणयवीक्षणजालमार्गाः पुंसां चतुर्थपुरुषार्थतरुप्ररोहाः । निःश्रेयसामृतरसागमनाग्रदूताः शुक्ला कचा ननु तपश्चरणोपदेशाः ।।" -यशस्ति. २. १०४, पृ. २२५ । लोकविद्या अथवा व्यवहारक्तूशलताके बारे में वे कहते है"लोकव्यवहारज्ञो हि सर्वज्ञोऽन्यस्तु प्राज्ञोऽप्यधज्ञायते एव ।" ६५, १८४ । लोकव्यवहारका ज्ञाता सर्वश सदृश माना जाता है। अन्य व्यक्ति महान् शानी होते हुए भी तिरस्कृत होता है । आचार्य कहते हैं__ "उत्तापकत्वं हि सर्वकार्येषु सिद्धीनां प्रथमोऽन्तरायः 11" सम्पूर्ण कार्योंकी सफलतामें आद्य विघ्न है शान्तताका अभाव, अर्थात मिजाजका गरम हो जाना। संसारमें शत्रुओंको वृद्धि करनेको औषधि अन्यको निन्दा करना है"न परपरिवादात्परं सर्वविद्वेषणभेषजमस्ति ।" १२, १७७ । वाणीकी कठोरता शस्त्रप्रहारसे भी अधिक भीषण होती है । कहते है-. "वापारुष्यं शस्त्रपातादपि विशिष्यते।" २७, १७९ ।

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