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जेनशासन ___ " हि शक्यं पदार्थानां भावनं च विनाशवस् ।" २, ४९ ।
वस्तुको नष्ट कर देना-मारको बिगाड़ देमा नसा तरल है, वैमा रस कार्यको सनाना सरल नहीं है।
संसार-समुनमें विपत्तिरूपी मगरादि विद्यमान हैं। उस समुद्रमें गोता लगानेवाला मृत्युको मुख में प्रवेश करता है। समुद्र के तौर पर ही रहनेवालोंकी भलाई है । कवि कहते हैं__"तीरस्थाः खलु जीवन्ति न हि रागाब्धिगाहिनः ।" ८, १ ।
यहां तटस्यवत्तिको कल्याणकारी बताया है। नम्रता तथा सौजन्यका प्रदर्शन मत्पुरुषोंके हृदयपर ही प्रभाव डालता है, दुष्ट व्यक्ति तो नम्रताको दुर्बलताका प्रतीक समझ और अधिक अभिमानको धारण करता है____ "सतां हि नम्रता शान्त्यै खलानां दर्पकारणम् ।" ५, १२ ।
गरीबी के कारण कीतियोग्य भी गुण प्रकाशमें नहीं आते । अकिंचनको विद्या भी उचिप्तरूपमें शोभित नहीं हो पाती ।
"रिमतस्य हि न जागर्ति कीर्तनीयोऽखिलो गणः ।
हन्त किं तेन विद्यापि विद्यमाना न शोभते ॥" ३,७ । साधारणतया मनोवृत्ति अकृत्यकी ओर मुकती है, यदि खोटो शिक्षा और मिल जाय, तो फिर क्या कहता है
"प्रकृत्या स्यादकृत्ये धीर्दुःशिक्षाणं तु किं पुनः ।।''३, ५०। ईर्ष्या, मात्सर्य के द्वारा अवर्णनीय क्षति होती है। भारतवर्ष के अधःपात में शासकोंका पारम्परिक मात्सर्थ भाव विशेष कारण रहा है। कविवर कहते हैं
"मात्सर्यात किं न नश्यति ।" ४, १७१ शिष्ट अन परस्पर सम्मिलनके अवसरपर पारस्परिक कुशलताकी चर्चा करते है । इस सम्बन्ध में भूघरवासजी कहते है
"जोई दिन कटै सोई आव में अवश्य घटै,
बूंद बूंद रीते जैसे अंजुली को जल है। देह नित छीन होत, नेन तेजहीन होत,
जोवन मलीन होत, छीन होत दल है। आय जरा नेरी, तके अंतक-अहेरी आये,
परभो नजीक जात नरभो विफल है। मिलके मिलापो जन पूछते हैं कुशल मेरी, ऐसी दशा माही मित्र ! काहे की कुशल है ?"
-जनशसक ३७॥