Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 218
________________ २१० जैनशासन सप, त्याग, अकिंचनत्व तथा ब्रह्मचर्य इन दश धर्मोका स्वरूपकथन माहात्म्यचिंतन एवं उनकी उपलब्धिनिमित्त अभ्यास तथा भावना की जाती है। साधक गुणमय परमात्मा उपरोक्त गुणोंकी भेदविवक्षा द्वारा पूजन कर के अपने मनको उज्ज्वल विचारों की ओर प्रेरित करता है। इस पर्व में जो पूजा की जाती है वह बहुत उद्वाधा, शान्ति तथा स्फूतिप्रद है। यह पर्व यथार्थ में संपूर्ण विश्वके द्वारा उत्साहपूर्वक मानने योग्य है । यदि दहालक्षण धर्म का प्रकाश जगत्में पाप्त हो जाय, तो संसार में स्वार्थ, राकोणता स्वच्छन्दता आदिवा जो प्रसार देखा जाता है, वह अंकुश महित हो जायगा और जगत् यथार्थ कल्याणकी ओर प्रवृस हो पवित्र 'मुघव कुटुम्बकम्' के भव्य-भवन निर्माणमें संलग्न हो जाय । इस पर्व की पूजा त उदार तथा उज्ज्वल भावनाओं से परिपूर्ण है । स्थानका अभाव होनेसे हम केवल सयमको समाराधनाक परिचव निमित्त लिखते हैं । छाततरायजी कहते है "उत्तम संयम मह मन में । भवभक माघ तेहैं। सुराग-नरक-पशु-पत्ति में नाहीं । आलस-हरन, करन सुख ठांहीं। ठांही, पृथ्वी, जल, आग, मारत, रूख, प्रस, करुना धरो। सपरसन, रसना, नान, नैना, कान, मन, सब वश करो। जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तु रुल्यो जग कीचमे । इक घरी मत विसरो करो नित, आवु जममुख बीचमें ।' पृथ्त्री आदि पंच स्थावर तथा त्रसकायकी रक्षा करते हुए पंच इन्द्रिय और मनको अपने अधीन रखने के लिए कितनो सुन्दर प्रेरणा को गई है। यदि संयम रत्नको सम्यक् प्रकार रक्षा न की गई, तो विषयवासनारूपी चोर इस निधिको लूटे बिना न रहेंगे ! कवि मायकको भतत सावधान रहने के लिए प्रेरणा करते हैं, अन्यया भविष्य अन्धकारमय होगा। संबमके समान मार्दन, आजव, ब्रह्मचर्य, सपश्चर्या, दान, आदिके विषयमें भी बड़े अनमोल पद लिखे गए हैं। इस प्रकारको गुणाराधना करने करते दोष संचयसे आत्मा बच कर परम-गरमा बनने की ओर प्रगति प्रारम्भ कर देती है । पोशकारण पर्व-इनमें दर्शनविशुद्धता, विनयसंपन्नता शील तथा व्रतोंका निर्दोष परिपालन, षट्नावश्यकों का पूर्णतया पालन करना, सतत ज्ञानाराधन, यथाशक्ति त्याग तया तपश्चर्या, साधु-पमाघि, साधुकी थैमावृत्य-परिचर्या, अरिहंत भगवान्, आचार्य तथा उपाध्यायको भक्ति, श्रुत-भक्ति, दवामय जिन शासनकी महिमाको प्रकाशित करना, जिन शासनके समाराधकोंके प्रांत यथार्थ वात्सल्य भाष रखना इन सोलह भावनाओं के द्वारा साधक विश्व उद्धारक तीर्थकर भगवान्का श्रेष्ठ पद प्राप्त करता है। इन सोलह भावनाओंको तीर्थकर पदके लिए कारणरूप

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