Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 276
________________ २६८ जैनशासन ही मुग्ध थे, किन्तु जैनियोंने पुरातन युगमें प्राकृत नामक जनताको भाषाको अपने उपदेशका अबलम्बन बना अत्यन्त पुष्ट, प्रसन्न तथा गंभीर रचनाओं द्वारा उसके भण्डारको अलंकृत किया। ईसवी के प्रारंभ कालमें पुष्पदन्त, भूतबलि, गुणधर, कुन्दकुन्द, यतिवृषभ आदि मुनीन्द्रोंने अपनी महत्वपूर्ण रचनाओं के द्वारा प्राकृतभाषाके मस्तकको अत्यन्त समुन्नत किया है। पुष्पदम्त भूतलि कृत खटलंडागमको ४६००० फ्लोक प्रमाण प्राकृत भाषामें सूत्र रचनरके प्रमे यकी अपूर्वता विश्वको चक्रिप्त करनेवाली है। लगभग ६ हजार इलोक प्रमाण प्राक्त सूत्रोंपर वीरसेनाचार्यने बहत्तर हजार लोक प्रमाण अवल! टीका नामका सर्वाङ्ग सुन्दर भाष्य रचा । भूतबलि स्वामीका ४० हजार श्लोक प्रमाण महावन्य ग्रन्थ विश्थ' साहित्वको अनुपम निधि है । गुणधर आचार्यन १८० गाथाओं में कवायाभूत बनाया, जिसकी टीका जयधमला ६० हजार श्लोक प्रमाण धोरसेन स्वामो तथा उनके शिष्य भगव जिनसेनने की है । कुन्दकुन्न मुनीन्द्रन अध्यात्म नामक परा-विद्याके अमृतरमसे आपूर्ण अनुपम ग्रंथराज समयसार की रचना को। उसके आनन्दनिझरके प्रभायमें जगत्का परिताप संतप्त नहीं करता। 'उनको यह शिक्षा प्रत्येक साधकके लिए श्वासोच्छ्वात्तको पवनसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है और प्रत्येक सत्सुरूपको उस साक्ष हृदयमें समुपस्थित रखना चाहिये, “मेरो आत्मा एक है। अविनाशी है। ज्ञान-दर्शन-शक्तिसम्पन्न है। मेरी आत्माको छोड़कर शेष सब बाहरी वस्तुएँ है । यथार्थमें वे मेरो नहीं है । उनका मेरो आत्मा के साथ संयोग सम्बन्ध हो गया है ।" मेरी कात्मा जब विनाश-रहित है, तब वनपात भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं कर सकता है। शरीरके नाश होनेसे मेरी आत्माका कुछ भी नहीं बिगड़ता है । कारण, शरीर मेरी आत्मासे पृथक् है । मेरी आत्मा तो एक है, एक थी, और यथार्थतः एक ही रहेगी। जिसकी इस सिद्धान्तपर श्रद्धा जम चुकी है बद् न मृत्यु से भरता है, न विपतिसे घबड़ाता है और न भोगविषयोंसे व्यामुग्ध हो बनता है । वह साधक एक यही तन्व अपने हृदय पटलपर उत्कीर्ण करता है. 'एगो मे सासदो आदर णाणसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सब्वे संजोगलक्खणा ॥" 'प्राकृत भाषाके पश्चात् उद्भूत होनेवाली विभिन्न प्रांतीय भाषाओंकी मध्यवतिनी अपनश नामको भाषाम भी जैन कवियों ने स्तुत्य कार्य किया है। १. श्वेताम्बर आगमनन्धोंकी विपुलराशि इसी भाषाके भण्डारका बदमूल्य भाग है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339