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जैनशासन
"न हि अचंभ जो होहिं तुरन्त । तुमसे तुम गुण वरणत सन्त ।। जो अधनीको आप समान | करें न सो निन्दित धनवान || "
आचार्य मानतुंग जिनेन्द्रदेवको बुद्ध, शंकर, विधाता, पुरुषोत्तम शब्दोंसे सम्बोधित करते हुए अपने गुणानुराग को इन गंभीर शब्दों द्वारा स्पष्ट करते हैं
"बुद्धस्त्वमेव विबुधाचितबुद्धिबोधात्
त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रयशङ्करत्वात् । धातामि धीर शिव-मार्ग विधेविधानात्
artतं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ||२५|| "
कविरन श्री गिरिधर शर्माने इस रूपमें लिखा है"तू बुद्ध है विबुध पूजिन बुद्धिवाला
कल्याण कर्तुवर शंकर भी तुड़ी है । तु मोक्षमार्ग विविधारक है विधाता
हे व्यक्त नाथ पुरुषोत्तम भी तुही है || " कल्याणमन्दिर स्तोत्रमें कहा है" त्वं तारको जिन ! कथं भविनां त एव त्वाद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा दृर्तिस्तरति यज्जलमेष नूनमन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥१०॥
यहां कवि भगवान् से कहता है 'आप सारक नहीं है, क्योंकि मैं अपने चिसमें आपको विराजमान कर स्वयं आपको तारता है। इसी बातको बनारसीबासजी हिन्दी पद्यानुवादमें इस प्रकार समझाते हैं
"तू भविजन तारक किमि ते चित धारि तिहि ले यह ऐमें कर जान तिरहि मसक ज्यों गर्भित
होहि ? तोहि ॥
स्वभाव |
इसका
वाव ॥। १० ।। " समान के उत्तरार्ध द्वारा कहते हैं कि जैसे पवनके प्रभाव से मशक जल में तिरती है, उसी प्रकार आपके नामके प्रभावसे जीव तरता है ।
एकीभावस्तोत्र में जिनेन्द्रकी भक्ति गंगाका बड़ा मनोहर चित्रण किया है । नयरूप हिमालयसे यह गंगा उदित हुई है और निर्वाणसिन्धु में मिल जाती है । रविराज सूरि कहते हैं
"प्रत्युत्पन्ना नयहिमगिरेरायता चामृताब्धेः
या देवत्वसदकमलयोः सङ्गता भक्तिगङ्गा ।