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पुण्यानुबन्धी वाङ्मय
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कितनी सुन्दर बात आचार्य महाराजने बताई है, कि यथार्थ शान्तिको उद्भूति आत्मनिर्मलता द्वारा प्राप्तव्य है। वह शान्ति बाहरी वस्तु नहीं है 1 प्रकाण्ड तार्किक होते हुए भी स्वामी समन्तभद्रकी कबितामें मधुरता तथा सरसताका अपूर्व सम्मिश्रण पाया जाता है। महाकवि हरिव अपने धर्मशर्माभ्युदयमें लिखते हैं
"वाणी भवेत् कस्यचिदेव पुण्यः शब्दार्थसन्दर्भविशेषगर्भा । इन्दुं विनाऽन्यस्य न दृश्यते द्युत् तमोघुनाना च सुधाधुनी च ॥ ११६ ॥ शब्द तथा भाव की रचनाविशेषसे समन्वित दाणी पुण्योदयसे किसी विरले भाग्यशाली पुण्यात्माको प्राप्त होती है । अन्धेरेको दूर करने वाली तथा अमृतके निर्झरसे समन्वित (शीतल तथा शान्ति प्रदान करने वाली ) ज्योति चंद्रके सिवाय अन्यत्र नही पाई जाती ।
भगवान् महावीर की तर्कशैली से अभिवन्दना करते हुए स्वामी समन्तभद्र कहते हैं - 'भगवन् । आपके शासनके प्रति तीव्र विद्वेष भाव धारण करने वाला भी यदि विचारक दृष्टि तथा मध्यस्थ भाव संपन्न हो आपके शासनकी परीक्षा करे, तो उसके एकान्त पाप अभिनिवेशरूप सीग लण्डित हो जायेंगे अर्थात् वह एकान्त पक्षका अभिमान छोड़ेगा और वह अभद्र (मिथ्यात्वी) होते हुए भी आपके शासनका श्रद्धालु हो समन्तभद्र ( सम्यग्दृष्टि ) हो जायगा । 'अभद्र मी समन्तभद्र होगा' यदि वह समदृष्टि तथा उपपत्ति चक्षु-विचारक दृष्टि संपन्न हुआ कितने युक्ति, प्राण तथा सत्यसमर्पित शब्द है ।
"कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः समीक्षतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खण्डितमानश्रृंगो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥"
- युक्त्यनुशासन ६३ ।
'प्रचेतस' नामक दिगम्बर मुनिराजकी महिमाको महाकवि हरिचन्द्र कितनी विलक्षण एवं विचक्षण-प्रिय पचति प्रकाशित करते हुए कहते है"युष्मत्पदप्रयोगेण पुरुषः स्याद्यदुत्तमः । अर्थोऽयं सर्वथा नाथ लक्षणस्याप्यगोचरः ॥"
-६० शर्मा० ३५३ ।
युष्मत्- 'पद' - आपके चरणारविन्द के प्रसाद से 'पुरुष उत्तम' हो जाता है । युष्मत् 'पद' प्रयोगसे 'उत्तम पुरुष' बनानेकी विशेषता आपमें है । यह बास व्याकरण शास्त्रको परिधि भी बाह्य है । व्याकरण शास्त्र तो 'युष्मत् पदके' प्रयोगसे मध्यम पुरुषको बताता है । यहाँ कचिने 'युष्मत् पद' और 'पुरुष: स्याद्यदुत्तमः' शब्दों द्वारा रचतामें एक नवीन जीवन डाल दिया।