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पुण्यानुबन्धी वाङ्मय
चेतस्तस्यां मम रुचिवशादाप्लुतं क्षालिताह:
कल्माषं यद्भवति किमियं देवः"
भूषरवासजी हिन्दी अनुवाद में इसे इस प्रकार स्पष्ट करते हैं— " स्याद्वाद - गिरि उपज मोक्ष सागर लौं धाई । तुम चरणाम्बुज परस भक्ति-गंगा सुखदाई ॥ मोचित निर्मल थयो न्होन रुचि पूरन तामैं । ra वह हो न मलीन कौन जिन संयम या ?"
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जय महाकवि अपने विषापहारस्तोत्र में युक्तिपूर्वक यह बात बताते हैं कि परिग्रहरहित जिनेन्द्रको आराधना से जो महान् फल प्राप्त होता है, वह धनपति कुबेर से भी नहीं मिलता है । जलरहित शैलराजसे ही विशाल नदियाँ प्रवाहित होती हैं । जलराशि समुद्र से कभी भी कोई नदी नहीं निकलती । कविवर कहते हैं—
"तुङ्गात्फलं यत्तदकिञ्चनाच्च प्राप्यं समृद्धान्त धनेश्वरादेः । निरम्भसोऽप्युच्च तमादिवाद्रेनेंकापि निर्यात धुनी पयोधेः ॥ १९ ॥ " इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है---
"उच्च प्रकृति तुम नाथ संग किंचित् न धरन तें । जो प्रापति तुम थकी नांहि सो धनेसुरन तँ ॥ उच्च प्रकृति जल विना भूमिधर धुनी प्रकासे । जलधितर ते भयो नदी ना एक निकासे || १५ || "
महाकवि कहते है, जिनेन्द्र भगवान्की महत्ता स्वतः सिद्ध है, अम्य देवोंके दोषी कहे जाने से उनमें पूज्यत्व नहीं आता। सागरको विशालता स्वाभाविक है। सरोवरको लघुताके कारण सागर महान् नहीं बनता । कितना भव्य तर्क है ! वास्तविक बात भी है, एकमें दोष होनेसे दूसरे में निर्दोषत्व किस प्रकार प्रतिष्ठित किया जा सकता है ? कविकी वाणी कितनी रसवती है"स नीरजाः स्यादपरोऽधवान् वा तद्दोषकीयैव न ते गुणित्वम् । स्वतोऽम्बुराशेर्महिमा न देव स्तोकापवादेन
जलाशयस्य ॥ "
१. "पापवान व पुण्यवान् सो देव बताये । तिनके गुन कई नाहि तू गुणी कहाई ॥ निज सुभावरी अम्बू राशि निज महिमा पावे | स्तक सरोबर कहे कहा उपमा बढि जावे ।।"
NAAM
- विषापहार ११ ।