Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 293
________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय चेतस्तस्यां मम रुचिवशादाप्लुतं क्षालिताह: कल्माषं यद्भवति किमियं देवः" भूषरवासजी हिन्दी अनुवाद में इसे इस प्रकार स्पष्ट करते हैं— " स्याद्वाद - गिरि उपज मोक्ष सागर लौं धाई । तुम चरणाम्बुज परस भक्ति-गंगा सुखदाई ॥ मोचित निर्मल थयो न्होन रुचि पूरन तामैं । ra वह हो न मलीन कौन जिन संयम या ?" २८५ जय महाकवि अपने विषापहारस्तोत्र में युक्तिपूर्वक यह बात बताते हैं कि परिग्रहरहित जिनेन्द्रको आराधना से जो महान् फल प्राप्त होता है, वह धनपति कुबेर से भी नहीं मिलता है । जलरहित शैलराजसे ही विशाल नदियाँ प्रवाहित होती हैं । जलराशि समुद्र से कभी भी कोई नदी नहीं निकलती । कविवर कहते हैं— "तुङ्गात्फलं यत्तदकिञ्चनाच्च प्राप्यं समृद्धान्त धनेश्वरादेः । निरम्भसोऽप्युच्च तमादिवाद्रेनेंकापि निर्यात धुनी पयोधेः ॥ १९ ॥ " इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है--- "उच्च प्रकृति तुम नाथ संग किंचित् न धरन तें । जो प्रापति तुम थकी नांहि सो धनेसुरन तँ ॥ उच्च प्रकृति जल विना भूमिधर धुनी प्रकासे । जलधितर ते भयो नदी ना एक निकासे || १५ || " महाकवि कहते है, जिनेन्द्र भगवान्की महत्ता स्वतः सिद्ध है, अम्य देवोंके दोषी कहे जाने से उनमें पूज्यत्व नहीं आता। सागरको विशालता स्वाभाविक है। सरोवरको लघुताके कारण सागर महान् नहीं बनता । कितना भव्य तर्क है ! वास्तविक बात भी है, एकमें दोष होनेसे दूसरे में निर्दोषत्व किस प्रकार प्रतिष्ठित किया जा सकता है ? कविकी वाणी कितनी रसवती है"स नीरजाः स्यादपरोऽधवान् वा तद्दोषकीयैव न ते गुणित्वम् । स्वतोऽम्बुराशेर्महिमा न देव स्तोकापवादेन जलाशयस्य ॥ " १. "पापवान व पुण्यवान् सो देव बताये । तिनके गुन कई नाहि तू गुणी कहाई ॥ निज सुभावरी अम्बू राशि निज महिमा पावे | स्तक सरोबर कहे कहा उपमा बढि जावे ।।" NAAM - विषापहार ११ ।

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