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पुण्यानुबन्धी वाङ्मय "अति मद मत्त गयन्द कुंभथल नखन विदार। मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारे ।। बांकी दाढ़ विशाल, बदनमें रसना लोले । भीम भयानक रूप देखि जन परहर डोले। ऐसे मृगपति पग तलें, जो नर आयो होय ।
शरण गए तुव चरणको बाधा करे न कोय ।। ३९ ।।" जिनंन्द्रदेवकी आराधनाकं प्रभावसे अग्निकृत उपद्रव भी नष्ट हो जाता है । इस विषयमें कविवर कहते है
"प्रलय पवनकर उठी आग जो तास पढन्तर । बमै फुलिंग शिस्त्रा उतंग पर जल निरन्तर ।। जगत् समस्त निगलके भस्म कर देगी मानो। उडाटात दव-अतुल योर न दिशा उठानो। सो इक छिन में उपशमें, नाम नीर तुम लत ।
होय सरोवर परिन में विकसित कमल समेत ॥ ४० ॥' इससे समुद्र सम्बन्धी विपत्ति भी दूर हो जाती है । मानलंग आचार्य भक्तिके रसमें तल्लीन हो कितने हृदय-स्पर्शी उद्गार व्यक्त करते हैं"अम्भोनिधौ क्षभितभीषणनकचक्रपाठीनपीठभयदोल्वणवाडवाग्नौ । रंगत्तरंग-शिखर-स्थितयानपानास्त्रास बिहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ।।" इसे हेमराजजी इन शब्दोंमें उपस्थित करते हैं--
"नक चक्र मगरादि मच्छ करि भय उपजावे । जामें बड़वा-अग्नि दाहतं नोर जलावें ।। पार न पावे जास थाह नहि लहिए जाकी। गरजे अति गंभीर लहरकी गिनती न ताकी 11 सुख सो तिर समुद्र को जे तुम गुन सुमराहि ।
लोल कलोलनके शिखर, पार मान ले जाहि ॥ ४४ ॥'' मानतुंग मुनिवरने कितन सुन्दर सानुप्रास पद्य द्वारा जिनेन्द्रकी महिमा बताई है"नात्यद्भुतं भुवनभूषण भूतनाथ, भूतैर्गुण (वि भवन्तमभिष्टुवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा भूत्याश्रितं अइह नात्मसमं करोति ।१० ___ इस पद्यमें 'भकार' की एकादश चार आवृत्ति विशेष ध्यान देने योग्य है । हिन्धी अनुवादमें मूलके सौन्दर्य का प्रतिबिम्ब तो न आ सका । उसमें उसका भाव इस प्रकार बताया है