________________
२८१
पुण्यानुबन्धी वाङ्मय "जिय बहुतक वेष धरे जगमें , छबि भा गई आज दिगम्बर को। चिन्तामणि जब प्रगट्यो हियमें , तब कौन जरूरत इम्बर की ।। जिन तारन-तरन हि सेव लिए , परवाह करे को जम्बर की। जिहि आस नहीं परमेसुरकी ,
मिलि आस करो सु अकबर को ।।" दुनिया ऐसा कौन है, जो झलेसे परिचित न हो ? कपि पावन एक ऐसे विलक्षण तथा विशाल लोक-यापी झूलेका वर्णन करते हैं, जिसमें सभी संसारी घूमते है । एक तत्वज्ञानी ही लेके चक्करसे बचा है----
"नेह औं मोहके खंभ जामें लगे, चौकड़ी चार डोरी सुहावे । चाहकी पाटरी जास पे है परी, पुण्य मो पाप 'जी' को झुलावे ।। सात राजू अधो सात ऊंचे चले, सर्व संसारको सो भमावे । एक सम्यक ज्ञानि ही झूलना सों, कूदिके 'वृन्द' भव पार जावे ।।"
-छन्दशतक ७९ 1 इस झूलेका वर्गम कविने मूलना छादमें ही किया है यह और मनोहर बात है।
भैया भगवतीदासजी सुखि रानीके द्वारा चाहन्यरायको समझाते हैं कि अमूल्य मनुष्यभवको प्राप्तकर आत्माका अहित नहीं करना चाहिये । किहमा सरस तथा जीवनप्रद संवाद है
''सुनो राय चिदानन्द, कहो जु सुबुसि रानी कहै कहा बेर बेर नकु तोहि लाज है । कैसी लान ? कहो, कहां, हम कछु जानत न
हमें इहां इन्द्रिनिको विषे सुख राज है।" इस पर सुबुद्धि देवी पुनः कहती हैं
"अरे मूढ़, विषय सुख सेये तू अनन्ती बार अजहूं अघायो नाहि, कामी शिरताज है । मानुष जनम पाय, आरज सुखेत आय,
जो न चेते, हसराय तेरो ही अकाज है॥" __ अपने स्वरूपको सनिक भी स्मरण न करनेवाले आत्माको किसनी ओजपूर्ण वाणीमें सम्झाम करने का प्रयत्न किया गया है । 'भैया' कहते हैं---