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जैनशासन धनी देखि कह्यो भैया यह तो हमारो वस्त्र , चीन्हो पहचानत ही त्याग भाव लह्यो है ।। तैसे ही अनादि पुदगल सों संजोगी जीव , संगके ममत्वसों विभाव तामें बह्यो है । भेदज्ञान भयो जब आपा पर जान्यो तब ,
न्यारो परभावसों सुभाव निज गह्यो है ।।" अपनी हीन परिस्थिति होते हुए बार-बार विपदाओंफे बादल घिरे देख जब साहस वाच टूटतः हो जप्त Iमर
पारा दिया बड़ा पथ्यकारी होगा
"वहाँकी कमाई "भैपा' पाई तू यहाँ आय , अब कहा सोच किए हाथ कछू परिहै । तब तो बिचारि कछू कियो नाहि बंधसमें , याको फल उदै आयो हम कैसे करिहैं । अब कहा मोच किए होत है अज्ञानी जीव , भुगते ही बने कृत्य कर्म कहूँ टरिहैं । अबकै सम्हालके विचार काम ऐमो कर,
जात निदानन्द फंद फेरिमें न परिहै ।।" एकान्त पक्षको सत्पथ भान कर उसे अपना मत मानने वालोंको मतवारा समझते हुए कथि 'शान्त रसधारे' का समर्थन करते हुए कहते हैं
"एक मतवारे कहें अन्य मतवारे सब , मेरे मत-बारे पर दारे मत सारे हैं। एक पंच-तत्ववारे एक एक-तत्व वारे , एक भ्रम-मतबारे एक एक ग्यारे हैं। जैसे मतवारे बक तैसे मत-वारे बक, तासों मतबारे नके बिना मतबारे हैं। शान्ति-रसवारे कहें मतको निधारे रहैं,
तेई प्रान प्यारे लहैं, और सब बारे हैं ।" एक समप्र जिनेन्द्र भक्ति में तल्लीन एक कविको इस प्रकारकी समस्या पूर्ति दी गई, जिसमें अकबर की स्तुतिके प्रभावसे नहीं बचा जा सकता था। उस पालाकीके फन्देसे बचते हुए कविने अपने पवित्र आदर्शको किस प्रकार रक्षा की इसका परिज्ञान इस पथ से होगा