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जैन शासन "कौन तुम ? कहां आए, कौने बौराए तुमहि, काके रस राचे, कछु सुध है धरतु हो । तुम तो सयाने पै सयान यह कौन कीन्हों,
तीन लोक नाथ के दीनसे फिरतु हो।" बड़े मधुर शब्दों में आत्माको समझाते हुए 'ज्ञानमहल' के भीतर बुलाते हैं और समझाते हैं, कि ऐसे अपूर्व स्थलको छोड़कर भूल में भी बाहर पाँच मत धरना-परपदार्थमें आसक्ति नहीं करना ।
"कहां कहां कौन संग लागे ही फिरत लाल आवो क्यों न आज तुम ज्ञानके महल में । नेकहु विलोकि देखो, अन्तर सुदृष्टि सेती
कैसी कैसी नीकि नारि खड़ी हैं टहलमें ।।" यहां क्षमा, करुणा आदि देवियोंको ज्ञान के पटलों अवस्थित जताया है। उनको सुन्दरता एवं महत्ता अपूर्व है । कवि कहते हैं
“एकन ते एक बनी सुन्दर मुरूप घनी, उपमा न जाय गनी रातको चहलमें। ऐसी विधि पाय कहूँ, भूलि हूँ न पाय दीजे,
एतो कह्यो वाम लोजे बीनती महल में ॥" कविवर बनारसोवास साधना प्रेमीसे छह माह पर्यन्त एकान्त में बैठकर चित्तको एक और करने की प्रेरणा करते हुए कहते हैं
"तेरो घट सर तामै तु ही है कमल वाकी तू ही मधुकर है सुवास पहिचानु रे । प्रापति न हे कछु ऐसें तू विचारतु है
सही हमें प्रापति सरूप यों ही जानु रे ॥" जब ममाधिको अवस्था उत्पन्न होती है तब भेद बुद्धि नहीं रहती। कहते है--
"राम रसिक अरु राम रस कहन सुननके दोय ।
जब समाधि परगट भई, तव दुविधा नहि कोय ॥" भक्तिके क्षेत्रमें भक्तामर, कल्याणमन्दिर, एकोभाव, विषापहार आदि स्तोत्रोंके रूपमें बड़ी पवित्र और यात्मजागृतिकारिणी रचनाएँ है । साहित्यको दृष्टिसे भी भक्तिसाहित्य बहुत महत्त्वपूर्ण है।
भस्तामरके मृगपत्ति भीति निवारक पदाका श्री हेमराजपाने कितना सजीव अनुवाद किया है